भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 94

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
42.यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।
43.कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगति प्रति ।।
वे अविवेकी लोग, जो वेद के शब्दों में आनन्द लेते हैं, जिनका कथन है कि इसके सिवाय और कुछ नहीं है, जिनका स्वभाव लालसापूर्ण है और जो स्वर्ग जाने के इच्छुक हैं, वे इन फूलों जैसे (आकर्षक) शब्दों को कहते हैं, जिनका परिणाम कर्मां के फल के रूप में पुनर्जन्म होता है और वे लोग आनन्द और शक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक विशेष प्रकार की विधियाँ बताते हैं।
गुरु सच्चे कर्म और कर्मकाण्डीय पवित्रता में अन्तर बताता है। वैदिक यज्ञों का उद्देश्य भौतिक लाभों की प्राप्ति है। परन्तु गीता हमें स्वार्थ की सब लालसाओं का त्याग करने को ही कहती है और सम्पूर्ण जीवन को एक बलिदान (यज्ञ) बनाकर, जो कि सच्ची भक्ति के लिए समर्पित हो, कर्म करने के लिए कहती है।मुण्डकोपनिषद् से तुलना कीजिए, 1,2,10। ’’वे मूर्ख, जो यह विश्वास करते हैं कि केवल यज्ञ (इष्‍टापूर्तम) करने से पुण्य मिलता है और अन्य किसी प्रकार पुण्य नहीं मिलता, स्वर्ग में आनन्द का उपभोग करने के बाद फिर इस
मत्र्य-जगत् में वापस आ जाते हैं।’’ साथ ही देखिए ईशोपनिषद, 9,12,कठोपनिषद् 2,5। वैदिक आर्य जीवन को अधीरतापूर्वक स्वीकार करने की दृष्टि से शानदार बच्चों के समान थे। वे उस मानवता के यौवन के प्रतिनिधि हैं, जिसका कि जीवन उस समय तक ताजा और मधुर था और चिन्ताजनक स्वप्नों से विकल नहीं हुआ था। उनमें परिपक्वता का सन्तुलित ज्ञान भी था। परन्तु लेखक ने अपना ध्यान केवल वेदों के कर्मकाण्ड तक ही सीमित रखा है, जो कि वेद की सारी शिक्षा नहीं है। जहां वेद हमें कर्मफल की इच्छा के साथ, चाहे वह अस्थायी स्वर्ग हो और चाहे उसका फल एकं नये शरीर जीवन में मिलना हो, कर्म करने का उपदेश देता है, यहाँ बुद्धियोग हमें मुक्ति की ओर ले जाता है।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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