भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 96

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
46.यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।
जब सब ओर जल ही जल की बाढ़ आई हो, उस समय एक पोखर का जितना उपयोग होता है, उतनी ही उपयोग ज्ञानी ब्राह्मण के लिए सब वेदों का है। तुलना कीजिएः ’’जैसे जिस व्यक्ति को नदी का पानी प्राप्त होता हो, वह कुएं को कोई महत्व नहीं देता, उसी प्रकार ज्ञानी लोग कर्मकाण्ड की विधियों को महत्व नहीं देते। ’’[१]जिनकी चेतना प्रबुद्ध हो चुकी हो, उनके लिए कर्मकाण्डी विधियों का महत्व बहुत कम है।परिणाम की चिन्ता किए बिना कर्म करना

47.कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
म कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगाअस्त्वकर्मणि।।
तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है; उनके फल पर तेरा अधिकार बिलकुल नहीं है। तेरा उद्देश्य कर्म का फल कभी न हो और न अकर्म (कर्मों का त्याग) के प्रति तेरा अनुराग हो।
इस प्रसिद्ध श्लोक में अनासक्ति का मूल सिद्धान्त विद्यमान है। जब हम अपना काम करते हैं, हल चलाते हैं चित्रांकन करते हैं, गाते हैं या चिन्तन करते हैं, तब यदि हम यश या आय या अन्य किसी इस तरह के बाह्य लाभ का ध्यान रखें, तो हम अनासक्ति से विचलित हो जाएंगे। सत्संकल्प- भगवान् के प्रयोजन को स्वेच्छापूर्वक् पूर्ण करने- के अलावा अन्य किसी वस्तु का महत्व नहीं है। सफलता या विफलता व्यक्ति पर निर्भर नहीं है अपितु और भी अनेक कारणों पर निर्भर है। गियोर्डानो बू्रनो का कथन है: ’’मैं जूझा हूँ, यही बहुत है;


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न ते (ज्ञानिनः) कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिवन्निव । - महाभारत, शान्तिपर्व 240,10

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