भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 97
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन
48.योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनज्जय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।
हे धन को जीतने वाले (अर्जुन) तू योग में स्थित होकर, सब प्रकार की आसक्ति को त्यागकर, सफलता और विफलता में मन को समान रखते हुए अपना काम करता जा; क्यों कि मन की समता ही योग कहलाती है।
योगस्थ: अपनी आन्तरिक शान्ति में स्थिर।समत्वम्: आन्तरिक सन्तुलन । यह अपने-आप को वश में करना है यह क्रोध, आशुक्षोभ, अभियान और महत्वाकांक्षा को जीतना है।हमें परिणामों के प्रति उदासीन रहते हुए पूरी शान्ति से काम करना चाहिए। जो व्यक्ति किसी आन्तरिक विधान के कारण कर्म करता है, वह उसकी अपेक्षा ऊँचे स्तर पर है, जिसके कर्म अपनी सनकों या वहमों के अनुसार किए जाते हैं। जो लोग कर्म के फलों की इच्छा से कर्म करते हैं, वे पूर्वजों या पितरों के लोक में जाते हैं और जो ज्ञान की खोज करते हैं, वे देवताओं के लोक में जाते हैं। [१]
49.दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनज्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।।
केवल कर्म बुद्धि के अनुशासन (बुद्धि योग) से बहुत घटिया है। हे धन को जीतने विाले (अर्जुन), तू बुद्धि में शरण ले। जो लोग (अपने कर्म के) फल की इच्छा करत हैं, वे दयनीय हैं।बुद्धियोग। साथ ही देखिए 18,57।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शंकराचार्य से तुलना कीजिएः द्विप्रकारं च वित्तं मानुषं दैव च, तत्र मानुष वित्तं कर्मरूपं पितृलोकप्राप्तिसाधनम्, विद्या च दैवं वित्तं देवलोकप्राप्तिसाधनम्। 2, ।