महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-20
शततम (100) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
- नहुष का पतन, शतक्रतु का इन्द्र पर पुन अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। राजा नहुष पर कैसे विपत्ति आयी? वे कैसे पृथ्वी पर गिराये गये और किस तरह वे इन्द्र पद से वंचित हो गये? इसे आप बताने की कृपा करें । भीष्मजी ने कहा-राजन। जब महर्षि भृगु और अगस्त्य उपर्युक्त वार्तालाप कर रहे थे। उस समय महामन नहुष के घर में दैवी और मानषी सभी क्रियाऐं चल रही थीं । दीपदान् समस्त उपकरणों सहित अन्नदान, बलिकर्म एवं नाना प्रकार के स्नान-अभिषेक आदि पूर्ववत् चालू थे। देवलोक तथा मनुष्य लोक में विद्वानों ने जो सदाचार बताये हैं, वे सब महामना देवराज नहुष के यहां होते रहते थे। राजेन्द्र। गृहस्थ के घर यदि उन सदाचारों का पालन हो तो वे गृहस्थ सर्वथा उन्नतिशील होते हैं, धूपदान, दीपदान तथा देवताओं को किये गये नमस्कार आदि से भी गृहस्थों की ऋद्वि-सिद्वि बढ़ती है । जैसे तैयार हुई रसोई में से पहले अतिथि को भोजन दिया जाता है, उसी प्रकार घर में देवताओं के लिये अन्न की बलि दी जाती है। जिससे देवता प्रसन्न होते हैं । बलिकर्म करने पर गृहस्थ को जितना संतोष होता है, उससे सौगुनी प्रीति देवताओं को होती है । इस प्रकार श्रेष्ठ पुरूष अपने लिये लाभदायक समझकर देवताओं को नमस्कार सहित धूपदान और दीपदान करते हैं । विद्वान पूरूष जल से स्नान करके देवता आदि के लिये नमस्कार पूर्वक जो तर्पण आदि कर्म करते हैं, उससे देवता, महाभाग पितर तथा तपोधन ऋषि संतुष्ट होते हैं तथा विधिपूर्वक पूजित होकर घर के सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं । इसी विचारधारा का आश्रय लेकर राजा नहुष ने महान् देवेन्द्र पद पाकर यह अद्भुत पुण्यकर्म सदा चालू रखा था । किंतु कुछ काल के पश्चात जब उनके सौभाग्य-नाश का अवसर उपस्थित हुआ, तब उन्होंने इन सब बातों की अवहेलना करके ऐसा पाप कर्म आरम्भ कर दिया । बल के घमण्ड में आकर देवराज नहुष उन सत्कर्मों से भ्रष्ट हो गये। उन्होंने धूपदान, दीपदान और जलदान की विधि का यथावत रूप से पालन करना छोड़ दिया । उसका फल यह हुआ कि उनके यज्ञ स्थल में राक्षसों ने डेरा डाल दिया। उन्हीं से प्रभावित होकर महामुनि नहुष ने मुस्कराते हुए मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य को सरस्वती तट से तुरंत अपना रथ ढ़ोने के लिये बुलाया। तब महातेजस्वी भृगु ने मित्रावरूणकुमार अगस्त्यजी से कहा- ‘मुने। आप अपनी आंखें मूंद लें मैं आपकी जटा में प्रवेश करता हूं।’ महर्षि अगस्त्य आंखे मूंदकर काष्ठ की तरह स्थिर हो गये। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले महातेजस्वी भृगु ने राजा को स्वर्ग से नीचे गिराने के लिये अगस्त्यजी की जटा मे प्रवेश किया। इतने में ही देवराज नहुष ऋषि को अपना वाहन बनाने के लिये उनके पास पहुंचे । प्रजानाथ। तब अगस्त्यजी ने देवाराज से कहा- राजन। मुझे शीघ्र रथ में जोतिये और बताइयें मैं आपको किस स्थान पर ले चलूं। देवेश्वर। आप जहां कहेंगे वहीं आपको ले चलूंगा। उनके ऐसा कहने पर नहुष ने मुनि को रथ में जोत दिया । यह देख उनकी जटा के भीरत बैठे हुए भृगु बहुत प्रसन्न हुए। उस समय भृगु ने नहुष का साक्षात्कार नहीं किया ।
« पीछे | आगे » |