महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-10
त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
जिन्होनें निष्काम भाव के द्वारा अपने सारे संकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो सदा ज्ञान में ही चित्त को एकाग्र किये रहते हैा और अग्नियों को अपने आत्मा में ही स्थापित करके आहार (भोग) और कामनाओं का त्याग कर देते हैं, विषयों की उपलब्धि के लिये जिनकी कोई प्रवृति नहीं होती, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त एवं ज्ञान दृष्टि से सम्पन्न हैं, वे स्वभावत: नियमपरायण एवं अनन्यचित से मेरा चिन्तन करने वाले धीर पुरूष मुझे ही प्राप्त होते हैं। तुमने जो आकाश में कमल और उत्पल से भरा हुआ सुन्दर सरोवर देखा था, उसके समीप स्थापित हुई अग्नियां बिना ईंधन ही प्रज्वलित हेाती है। जिनके अन्त: करण ज्ञान के प्रकाश से निर्मल हो गये है, जो चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल हैं, वे ही वहां स्पष्ट अक्षर का उच्चारण करते हुए वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक अग्नि की उपासना करते हैं । विहंगम ! वे पवित्रभाव से रहकर उन अग्नियों की परिचर्या की ही इच्छा रखते हैं। मेरा चिन्तन करने के कारण जिनका अन्त: करण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासना में रत हैं, वे ही वहां रोग-शोक से रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होकर वीतराग हृदय से वदा वही निवास करेंगे। उनकी अंगकान्ति चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल है। वे निराहार, श्रम बिन्दुओं से रहित, निर्मल, अहंकारशून्य, आलम्बन रहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझ में भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूं। मैं अपने को चार स्वरूपों में विभक्त करके जगत के हित साधन में तत्पर हो विचरता रहता हूं । सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें– इसके लिये मैं विधान बनाता हूं । वह सब तुम यथार्थ रूप से सुनने के अधिकारी हो।
तात ! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है जो परम योग का आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है जो चराचर प्राणि समुदाय की सृष्टि करती है। तीसरी मूर्ति स्थावर-जंगम जगत का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियों को माया से मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है। अपनी माया से दुष्टों को मोहित और नष्ट करने वाली जो मेरी चौथी आत्मनिष्ठ महामूर्ति है, वह नियम-पूर्वक रहकर जगत की वृद्धि और रक्षा करती है । गरुड़ ! वह मैं हूं। मैंने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप कर रखा है । सारा जगत मुझ में ही प्रतिष्ठित है । मैं ही सम्पूर्ण जगत का बीज हूं । मेरी सर्वत्र गति है और में अविनाशी हूं। विहंगम ! वे जो अग्निहोत्र थे तथा जो चन्द्रमा की किरणों पुंज-जैसी कान्ति वाले पुरूष निरन्तर उन अग्नियों के समीप बैठकर वेदों का पाठ करते थे, वे ज्ञानसम्पन्न एवं सुखी होकर क्रमश: मुझे प्राप्त होते हैं । मैं ही उनका उदद्प्त तप और सम्यक रूप से संचित तेज हूं । वे सदा मुझ में विद्यमान हैं और मैं उनमें सावधान हुआ रहता हूं। जो सब ओर से आसक्तिशून्य है, वह मुझे में अनन्य भाव से चित को एकाग्र करके ज्ञान दृष्टि से मेरा साक्षात्कार कर सकता है ।। जो संयास का आश्रय लेकर अनन्य भाव से मेरे ध्यान में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।
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