महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 104-109

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 104-109 का हिन्दी अनुवाद


847 भारभृत्- शेषनाग आदि के रूप में पृथ्वी का भार उठाने वाले और अपने भक्तों के योगक्षेमरूप भार को वहन करने वाले, 848 कथितः- वेद-शास्त्र और महापुरूषों द्वारा जिनके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप का बारंबार कथन किया गया है, ऐसे सबके द्वारा वर्णित, 849 योगी- नित्य समाधियुक्त, 850 योगीशः- समस्त योगियों के स्वामी, 851 सर्वकामदः- समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 852 आश्रमः- सबको विश्राम देने वाले, 853 श्रमणः- दुष्टों को संतप्त करने वाले, 854 क्षामः- प्रलयकाल में सब प्रजा का क्षय करने वाले, 855 सुपर्णः- वेदरूप सुन्दर पत्तों वाले (संसारवृक्षस्वरूप), 856 वायुवाहनः- वायु को गमन करने के लिये शक्ति देने वाले। 857 धनुर्धरः- धनुषधारी श्रीराम, 858 धनुर्वेदः- धनुर्विद्या को जानने वाले श्रीराम, 859 दण्डः- दमन करने वालों की दमनशक्ति, 860 दमयिता- यम और राजा आदि के रूप में दमन करने वाले, 861 दमः- दण्ड का कार्य यानी जिनको दण्ड दिया जाता है, उनका सुधार, 862 अपराजितः- शत्रुओं द्वारा पराजित न होने वाले, 863 सर्वसहः- सब कुछ सहन करने की सामथ्र्य से युक्त, अतिशय तितिक्षु, 864 नियन्ता- सबको अपने-अपने कर्तव्य में नियुक्त करने वाले, 865 अनियमः- नियमों से न बँधे हुए, जिनका कोई भी नियन्त्रण करने वाला नहीं, ऐसे परमस्वतन्त्र, 866 अयमः- जिनका कोई शासक नहीं। 867 सत्ववान्- बल, वीर्य, सामथ्र्य आदि समस्त तत्वों से सम्पन्न, 868 सात्विकः- सत्वगुणप्रधानविग्रह, 869 सत्यः- सत्यभाषणस्वरूप, 870 सत्यधर्मपरायणः- यथार्थ भाषण और धर्म के परम आधार, 871 अभिप्रायः- प्रेमीजन जिनको चाहते हैं- ऐसे परम इष्ट, 872 प्रियार्हः- अत्यन्त प्रिय वस्तु समर्पण करने के लिये योग्य पात्र 873 अर्हः- सबके परम पूज्य, 874 प्रियकृत्- भजने वालों का प्रिय करने वाले, 875 प्रीतिवर्धनः- अपने पे्रमियों के पे्रम को बढ़ाने वाले। 876 विहायसगतिः- आकाश में गमन करने वाले, 877 ज्योतिः- स्वयंप्रकाशस्वरूप, 878 सुरूचिः- सुन्दर रूचि और कान्तिवाले, 879 हुतभुक्-यज्ञ में हवन की हुई समस्त हवि को अग्निरूप से भक्षण करने वाले, 880 विभुः- सर्वव्यापी, 881 रविः- समस्त रसों का शोषण करने वाले सूर्य, 882 विरोचनः- विविध प्रकार से प्रकाश फैलाने वाले, 883 सूर्यः- शोभा को प्रकट करने वाले, 884 सविता- समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले, 885 रविलोचनः- सूर्यरूप नेत्रों वाले। 886 अनन्तः-सब प्रकार से अन्तरहित, 887 हुतभुक्- यज्ञ में हवन की हुई सामग्री को उन-उन देवताओं के रूप में भक्षण करने वाले, 888 भोक्ता- जगत् का पालनप करने वाले, 889 सुखदः- भक्तों को दर्शनरूप परम सुख देने वाले, 890 नैकजः- धर्मरक्षा, साधुरक्षा आदि परम विशुद्ध हेतुओं से स्वेच्छापूर्वक अनेक जन्म धारण करने वाले, 891 अग्रजः- सबसे पहले जन्मने वाले आदिपुरूष, 892 अनिर्विण्णः- पूर्णकाम होने के कारण उकताहट से रहित, 893 सदामर्षी-सत्पुरूषों पर क्षमा करने वाले, 894 लोकाधिष्ठानम्- समस्त लोकों के आधार, 895 अद्भुतः- अत्यन्त आश्चर्यमय। 896 सनात्- अनन्तकालस्वरूप, 897 सनातनतमः- सबके कारण होने से ब्रह्मादि पुरूषों की अपेक्षा भी परम पुराणपुरूष, 898 कपिलः- महर्षि कपिलावतार, 899 कपिः- सूर्यदेव, 900 अप्ययः- सम्पूर्ण जगत् के लयस्थान, 901 स्वस्तिदः- परमानन्दरूप मंगल देने वाले, 902 स्वस्तिकृत्-आश्रितजनों का कल्याण करने वाले, 903 स्वस्ति- कल्याणस्वरूप, 904 स्वस्तिभुक्- भक्तों के परम कल्याण की रक्षा करने वाले, 905 स्वस्तिदक्षिणः- कल्याण करने में समर्थ और शीघ्र कल्याण करने वाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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