महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 99-103
एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
800 सुवर्णबिन्दुः- सुन्दर अक्षर और बिन्दु से युक्त ओंकारस्वरूप, 801 अक्षोभ्यः- किसी के द्वारा भी क्षुभित न किये जा सकने वाले, 802 सर्ववागीश्वरेवरः- समस्त वाणीपतियों के यानी ब्रह्मादि के भी स्वामी, 803 महाहृदः- ध्यान करने वाले जिसमें गाता लगाकर आनन्द में मग्न होते हैं,ऐसे परमानन्द के महान् सरोवर, 804 महागर्तः- महान् रथवाले, 805 महाभूतः- त्रिकाल में कभी नष्ट न होने वाले महाभूतस्वरूप, 806 महानिधिः- सबके महान् निवास-स्थान। 807 कुमुदः- कु अर्थात् पृथ्वी को उसका भार उतारकर प्रसन्नकरने वाले, 808 कुन्दरः- हिरण्याक्ष को मारने के लिये पृथ्वी को विदीर्ण करने वाले, 809 कुन्दः- परशुराम-अवतार में पृथ्वी प्रदान करने वाले, 810 पर्जन्यः- बादल की भाँति समस्त इष्ट वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 811 पावनः- स्मरण मात्र से पवित्र करने वाले, 812 अनिलः- सदा प्रबुद्ध रहने वाले, 813 अमृताशः- जिनकी आशा कभी विफल न हो- ऐसे अमोघसंकल्प, 814 अमृतवपुः- जिनका कलेवर कभी नष्ट न हो- ऐसे नित्य विग्रह, 815 सर्वज्ञः- सदा सर्वदा सब कुछ जानने वाले, 816 सर्वतोमुखः- सब ओर मुखवाले यानी जहाँ कहीं भी उनके भक्त भक्तिपूर्वक पत्र-पुष्पादि जो कुछ भी अर्पण करें, उसे भक्षण करने वाले। 817 सुलभः- नित्य-निरन्तर चिन्तन करने वाले को और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को बिना ही परिश्रम के सुगमता से प्राप्त होने वाले, 818 सुव्रतः- सुन्दर भोजन करने वाले यानी अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र-पुष्पादि मामूली भोजन को भी परम श्रेष्ठ मानकर खाने वाले, 819 सिद्धः- स्वभाव से ही समस्त सिद्धियों से युक्त, 820 शत्रुजित्-देवता और सत्पुरूषों के शत्रुओं को जीतने वाले, 821 शत्रुतापनः- देव-शत्रुओं को तपाने वाले, 822 न्यग्रोधः- वटवृक्षरूप, 823 उदुम्बरः- कारणरूप से आकाश के भी ऊपर रहने वाले, 824 अश्वत्थः- पीपल वृक्षस्वरूप, 825 चाणूरान्ध्रनिषूदनः- चाणूर नामक अन्ध्रजाति के वीर मल्ल को मारने वाले। 826 सहस्त्रार्चिः- अनन्त किरणों वाले सूर्यरूप, 827 सप्तजिव्हः- काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूचि- इन सात जिव्हाओं वाले अग्निस्वरूप, 828 सप्तैधाः- सात दीप्तिवाले अग्निस्वरूप, 829 सप्तवाहनः- सात घोड़ों वाले सूर्यरूप, 830 अमूर्तिः- मूर्तिरहित निराकार, 831 अनघः- सब प्रकार से निष्पाप, 832 अचिन्त्यः- किसी प्रकार भी चिन्तन करने में न आने वाले अव्यक्तस्वरूप, 833 भयकृत्- दुष्टों को भयभीत करने वाले, 834 भयनाशनः- स्मरण करने वालों के और सत्पुरूषों के भय का नाश करने वाले। 835 अणुः- अत्यन्त सूक्ष्म, 836 बृहत्- सबसे बड़े, 837 कृशः- अत्यन्त पतले और हलके, 838 स्थूलः- अत्यन्त मोटे और भारी, 839 गुणभृत्- समस्त गुणों को धारण करने वाले, 840 निर्गुणः- सत्व, रज और तम- इन तीनों गुणों से अतीत, 841 महान्- गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्वसम्पन्न, 842 अधृतः- जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता- ऐसे निराधार, 843 स्वधृतः- अपने-आपसे धारित यानी अपनी ही महिमा में स्थित, 844 स्वास्यः- सुन्दर मुखवाले, 845 प्राग्वंशः- जिनसे समस्त वंश-परम्परा आरम्भ हुई है- ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदिपुरूष, 846 वंशवर्धनः- जगत्-प्रपंचरूप वंश को ओर यादव वंश को बढ़ाने वाले।
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