महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 346-366
चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
'जो सम्पूर्ण प्राणियों का आदिकारण, अविनाशी, समस्त तत्वों के विधान का ज्ञाता तथा प्रधान परम पुरूष है, वह ये भगवान महादेवजी ही है । 'इन्हीं जगदीश्वर ने अपने दाहिने अंग से लोकस्त्रष्टा ब्रह्मा को और बायें अंग से जगत् की रक्षा के लिये विष्णु को उत्पन्न किया है । 'प्रलयकाल प्राप्त होने पर इन्हीं भगवान शिव ने रूद्र की रचना की थी । वे ही रूद्र सम्पूर्ण चराचर जगत का संहार करते हैं । 'वे ही महा तेजस्वी काल होकर कल्प के अन्त में समस्त प्राणियों को अपना ग्रास बनाते हुए-से प्रलयकालीन अग्नि के सदृश स्थित होते हैं । 'ये ही देवदेव महादेव चराचर जगत की सृष्टि करके कल्पान्त में सबकी स्मृति-शक्ति को मिटाकर स्वयं ही स्थित रहते हैं । 'ये सर्वत्र गमन करने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा तथा समस्त भूतों के जन्म और वृद्धि के हेतु हैं । ये सर्वव्यापी परमेश्वर सदा सम्पूर्ण देवताओं से अदृश्य रहते हैं ।' प्रभो ! यदि आप मुझ पर संतुष्ट हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो हे देव ! हे सुरेश्वर ! मेरी सदा आप में भक्ति बनी रहे । 'सुरश्रेष्ठ ! विभो ! आपकी कृपा से मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जान सकू, ऐसा मेरा निश्चय है । 'मैं अपने बन्धु-बान्धवों सहित सदा अक्षय दूध-भात का भोजन प्राप्त करूं और हमारे इस आश्रम में सदा आपका निकट निवास रहे' । मेरे ऐसा कहने पर लोक पूजित चराचरगुरू महातेजस्वी महेश्वर भगवान शिव मुझसे यों बोले - भगवान शिव ने कहा- ब्रह्मान ! तुम दु:ख से रहित अजर-अमर हो जाओ। यशस्वी, तेजस्वी तथा दिव्य ज्ञान से सम्पन्न बने रहो । मेरी कृपा से तुम ऋषियों के भी दर्शनीय एवं आदरणीय होओगे तथा सदा शीलवान, गुणवान, सर्वज्ञ एवं प्रियदर्शन बने रहोगे । तुम्हें अक्ष्य यौवन और अग्नि के समान तेज प्राप्त हो। तुम्हारे लिये क्षीरसागर सुलभ हो जायेगा । तुम जहां-जहां प्रिय वस्तु की इच्छा करोगे वहां-वहां तुम्हारी सारी कामना सफल होगी, और तुम्हें क्षीरसागर का सान्निध्य प्राप्त होगा । तुम अपने भाई-बन्धुओं के साथ एक कल्प तक अमृत सहित दूध-भात का भोजन पाते रहो । तत्पश्चात तुम मुझे प्राप्त हो जाओगे । तुम्हारे बन्धु-बान्धव, कुल तथा गोत्र की परम्परा सदा अक्षय बनी रहेगी ।। द्विजश्रेष्ठ ! मुझ में तुम्हारी सदा अचल भक्ति होगी तथा द्विजप्रवर ! तुम्हारे इस आश्रम के निकट मैं सदा अदृश्य रूप से निवास करूंगा । बेटा ! तुम इच्छानुसार यहां रहो। कभी किसी बात के लिये चिन्ता न करना । विप्रवर ! तुम्हारे स्मरण करने पर मैं पुन: तुम्हें दर्शन दूंगा । ऐसा कहकर वे करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी भगवान शंकर उपर्युक्त वर प्रदान करके वही अन्तर्धान हो गये । श्रीकृष्ण ! इस प्रकार मैंने समाधि के द्वारा देवाधिदेव भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया। उन बुद्धिमान महादेवजी ने जो कुछ कहा था, वह सब मुझे प्राप्त हो गया है । श्रीकृष्ण ! यह सब आप प्रत्यक्ष देख लें । यहां सिद्ध महर्षि, विद्याधर, यक्ष, गन्धर्व और अप्सराएं विद्यमान हैं । देखिये, यहां के वृक्ष, लता और गुल्म सब प्रकार के फूल और फल देने वाले हैं । ये सभी ऋतुओं के फूलों से युक्त, सुखदायक पल्लवों से समन्न और सुगन्ध से परिपूर्ण हैं ।
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