महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 367-385
चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाबाहों ! देवताओं के भी देवताओं तथा सबके ईश्वर महात्मा शिव के प्रसाद से ही यहां सब कुछ दिव्य भाव से सम्पन्न दिखायी देता है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - राजन् ! उनकी यह बात सुनकर मानो मुझे भगवान शिव का प्रत्यक्ष दर्शन हो गया हो, ऐसा प्रतीत हुआ । फिर बड़े विस्मय में पड़कर मैंने उन महामुनि से पूछा - 'विप्रवर ! आप धन्य हैं । आपसे बढ़कर पुण्यात्मा पुरूष दूसरा कौन है ?क्योंकि आपके इस आश्रम में साक्षात् देवाधिदेव महादेव निवास करते हैं । 'मुनिश्रेष्ठ ! क्या कलयाणकारी भगवान शिव मुझे भी इसी प्रकार दर्शन देंगे ?मुझपर भी कृपा करेंगे ?' उपमन्यु बोले - निष्पाप कमलनयन !जैसे मैंने भगवान दर्शन किया है, उसी प्रकार आप भी थोड़े ही समय में महादेव जी का दर्शन प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं है । पुरूषोत्तम ! मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं आप आज से छठे महीने में अमित पराक्रमी महादेवजी का दर्शन करेंगे। यदुश्रेष्ठ ! पत्नी सहित महादेवजी से आप सोलह और आठ वर प्राप्त करेंगे । यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूं । महाबाहों ! बुद्धिमान महादेव जी के कृपा-प्रसाद से मुझ सदा ही भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों कालका ज्ञान प्राप्त है । माधव ! भगवान हर ने यहां रहने वाले इन सहस्त्रों मुनियों को कृपापूर्ण हृदय से अनुगृहीत किया है । फिर आप पर वे अपना कृपा प्रसाद क्यों नहीं प्रकट करेंगे । आप-जैसे ब्रह्माणभक्त, कोमलस्वभाव और श्रद्धालु पुरूष का समागम देवताओं के लिये भी प्रशंसनीय है । मैं आपको जपने योग्य मंत्र प्रदान करूंगा, जिससे आप भगवान शंकर का दर्शन करेंग । श्रीकृष्ण कहते हैं - तब मैंने उनसे कहा - बहृान् ! महामुने ! मैं आपके कृपा प्रसाद से दैत्य दलों का दलन करने वाले देवेश्वर महादेवजी का दर्शन अवश्य करूंगा।भरतनन्दन ! इस प्रकार महादेवजी की महिमा से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहते हुए उन मुनीश्वर के आठ दिन एक मुहूर्त समान बीत गये। आठवें दिन विप्रवर उपमन्यु ने विधिपूर्वक मुझे दीक्षा दी । उन्होनें मेरा सिर मुड़ा दिया। मेरे शरीर में घी लगाया तथा मुझे दण्ड, कुशा, चीर एवं मेखला धारण कराया । मैं एक महीने तक फलाहार करके रहा और दूसरे महीने में केवल जल का आहार किया । तीसरे, चौथे और पांचवे महीने मैं दोनों बांहे उपर उठाये एक पैर से खड़ा रहा । आलस्य को अपने पास नहीं आने दिया । उन दिनों वायुमात्र ही मेरा आहार रहा । भारत ! पाण्डुनन्दन ! छठे महीने में आकाश के भीतर मुझे सहस्त्रों सूर्यों का सा तेज दिखायी दिया । उस तेज के भीतर एक और तेजोमण्डल दृष्टिगोचर हुआ, जिसका सर्वांग इन्द्रधनुष परिवेष्टित था । विद्युन्माला उसमें झरोखे के समान प्रतीत होती थी । वह तेज नील पर्वतमाला के समान प्रकाशित होता था । उस द्विध तेज के कारण वहां का आकाश बक पंक्तियों से विभूषित सा जान पड़ता था । उस नील तेज के भीरत महातेजस्वी भगवान शिव तप, तेज, कान्ति तथा अपनी तेजस्विनी पत्नी उमादेवी के साथ विराजमान थे । उस नील तेज में पार्वती देवी के साथ स्थित हुए भगवान महेश्वर ऐसी शोभा पा रहे थे मानो चन्द्रमा के साथ सूर्य श्याम मेघ के भीतर विराज रहे हों ।
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