महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 22-48
अष्टादश (18) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
’’विप्रवर! तुम पापपूर्ण आग्रह छोड़कर फिर अपनी बुद्धि से विचार करो। सुदुर्मते! तुमने ऐसा पाप कर डाला है, जिससे यह यज्ञ ही निष्फल हो गया’। ’ऐसा कहकर महाक्रोधी वरिष्ठने भगवान शकरकी ओर देखते हुए फिर कहा-’तुम ग्यारह हजार आठ सौ वर्षोंतक जल और वायुसे रहित तथा अन्य पशुओं से परित्यक्त केवल रूरू तथा सिंहोंसे सेवित जो यज्ञोंके लिये उचित नही है-ऐसे वृक्षोंसे भरे हुए विशालवन में बुद्धिष्च, दुखी, सर्वदा भयभीत, वनचारी और महान् कष्टमे मग्न क्रूर स्वभाववाले पशु होकर रहोगे’ कुन्तीनन्दन! डनका यह वाक्य पूरा होते ही मैं क्रूर पशु हो गया। तब मैं भगवान शकरकी शरणमें गया। अपनी शरणमें आये हुए मुझ सेवकसे योगी महेश्वर इस प्रकार बोले-’मुने! तुम अजर-अमर और दुःख रहित हो जाओगे। तुम्हें मेरी समानता प्राप्त हो और तुम दोनों यजमान और पुरोहितका यह यज्ञ सदा बढ़ता रहे’’ इस प्रकार सर्वव्यापी भगवान शकर सबके उपर अनुग्रह करते है। ये ही सबका अच्छे ढंगसे धारण-पोषण करते हैं और सर्वदा सबके सुख-दुःख का भी विधान करते हैं’’। ’’तात! समरभूमिके श्रेष्ठ वीर! ये अचिन्त्य भगवान शिव मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा आराधना करने योग्य हैं। उनकी आराधनाका ही यह फल है कि पाण्डित्य में मेरी समानता करनेवाला आज कोई नहीं है’’। उस समय बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण फिर इस प्रकार बोले-’’मैंने सुवर्ण-जैसे नेत्रवाले महादेवजीको अपनी तपस्या से संतुष्ट किया। ’’युधिष्ठिर! तब भगवान शिव ने मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक कहा-’श्रीकृष्ण! तुम मेरी कृपासे प्रिय पदार्थोंकी अपेक्षा भी अत्यन्त प्रिय होओगे। युद्धमें तुम्हारी कभी पराजय नहीं होगी तथा तुम्हें अग्निके समान दुस्सह तेजकी प्राप्ति होगी’। ’’इस तरह महादेवजीने मुझे और भी सहस्त्रों वर दिये। पूर्वकालमें अन्य अवतारोंके समय मणिमन्थ पर्वतपर मैंने लाखों-करोड़ों वर्षोंतक भगवान शकरकी आराधना की थी।’’ इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने मुझसे कहा-’कृष्ण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मनसे जैसी रूचि हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। ’’यह सुनकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा- ’यदि मेरी परम भक्ति से भगवान महादेव प्रसन्न हों तो ईशान! टापके प्रति नित्य-निरन्तर मेरी स्थिर भक्ति बनी रहे।’तब ’एवमस्तु’ कहकर भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये’’। जैगीशव्य उवाच जैगीशव्य बोले-युधिष्ठिर! पूर्वकालमें भगवान षिवने काशीपुरीके भीतर अन्य प्रबल प्रयत्नसे संतुष्ट हो मुझे अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान की थीं। गर्ग उवाच गर्ग ने कहा- पाण्डुनन्दन! मैंने सरस्वतीके तटपर मानस यज्ञ करके भगवान शिवको संतुष्ट किया था। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे चौसठ कलाओं का अद्भूत ज्ञान प्रदान किया। मुझे मेरे ही समान एक सहस्त्र ब्रहावादी पुत्र दिये तथा पुत्रोंसहित मेरी दस लाख वर्षकी आयु नियत कर दी। पराशर उवाच पराशरजी ने कहा- नरेश्वर! पूर्वकालमें यहां मैंने महादेवजीको प्रसन्न करके मन-ही-मन उनका चिन्तन आरम्भ किया। मेरी इस तपस्याका उदेश्य यह था कि मुझे महेश्वरकी कृपासे महातपस्वी, महातेजस्वी, महायोगी, महायशस्वी, दयालु, श्रीसम्पन्न एवं ब्रहमानिष्ठ वेदव्यासनामक मनोवांछित पुत्र प्राप्त हो। मेरा ऐसा मनोरथ जानकर सुरश्रेष्ठ षिवने मुझसे कहा-’मुने! तुम्हारी मेरे प्रति जो सम्भावना है अर्थात् जिस वरको पानकी लालसा है, उसीसे तुम्हें कृष्ण नामक पुत्र प्राप्त होगा। ’सावर्णिक मन्वन्तरके समय जो सृष्टि होगी, उसमें तुम्हारा यह पुत्र सप्तर्षिके पदपर प्रतिष्ठित होगा तथा इस वैवस्वत मन्वन्तरमें वह वेदों का वक्ता, कौरव-वंशका प्रवर्तक, इतिहासका निर्माता, जगत्का हितैषी तथा देवराज इन्द्रका परम प्रिय महामुनि होगा। पराषर! तुम्हारा वह पुत्र सदा अजर-अमर रहेगा।’युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महायोगी, शक्तिशाली, अविनाशी और निर्विकार भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।। माण्डव्य उवाच माण्डव्य बोले-नरेश्वर! मैं चोर नहीं था तो भी चोरीके संदेहमें मुझे शूलीपर चढ़ा दिया गया। वहीं से मैंने महादेवजीकी स्तुति की ।तब उन्होंने मुझसे कहा-’विप्रवर! तुम शूलसे छूटकारा पा जाओगे और दस करोड़ वर्षोंतक जीवित रहोगे। तुम्हारे शरीरमें इस शूलके धंसनेसे कोई पीड़ा नहीं होगी। तुम आधिव्याधिसे मुक्त हो जाओगे।
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