महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 32 श्लोक 17-39
द्वात्रिंश (32) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर! बाज की यह बात सुनक्र राजर्षि उशीनर को बड़ा विस्मय हुआ। वे उस के कथन की प्रशंसा कर के कपोत की रक्षा के लिये इस प्रकार बोले। राजा ने कहा-बाज! तुम चाहो तो तुम्हारी भूख मिटाने के लिये आज तुम्हारें भोजन के निमित बैल, भैंसा, सूअर अथवा मृग प्रस्तुत कर दिया जाय। विहंगम! मैं शरणागत का त्याग नहीं कर सकता-यह मेरा व्रत है। देखो, यह पक्षी भय के मारे मेरे अंगो को छोड़ नहीं रहा है। बाज ने कहा-महाराज! मैं न तो सूअर, न बैल और न दूसरे ही नाना प्रकार के पक्षियों का मांस खाउंगा। जो दूसरों का भोजन है उसे लेकर मैं क्या करूंगा। साक्षात् देवताओं सनातनकाल से मेरे लिये जो खाद्य नियत कर दिया है वही मुझै मिलना चाहिये।
प्राचीनकाल से लोग इस बातको जानते हैं कि बाज कबूतर खाते हैं। निष्पाप महाराज उशीनर यदि आपको इस कबूतर पर बड़ा स्नेह हैं तो आप मुझे इसके बराबर अपना ही मांस तराजू पर तौलकर दे दीजिये। राजा ने कहा- बाज ! तुमने ऐसी बात कहकर मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करुंगा।‘ यों कहकर नपश्रेष्ठ उशीनर ने अपना मांस काट-काटकर तराजू पर रखना आरम्भ किया। यह समाचार सुनकर अन्तपूर की रत्नविभूषित रानियां बहुत दुखी हुई और हाहाकार करती हुई बाहर निकल आयीं। उनके रोनेके शब्दसे तथा मन्त्रियों और भृत्यजनोंके हाहाकारसे मेघकी गम्भीर गर्जनाके समान वहाँ बड़ज्ञ भारी कोलाहल मच गया। सारा शुभ्र आकाश सब ओरसे मेघोंद्वारा आच्छादित हो गया। उनके सत्यकर्मके प्रभावसे पृथ्वी कॉंपने लगी। राजा अपनी पसलियों, भुजाओं और जाँघोंसे मांस काटकर जल्दी-जल्दी तराजू भरने लगे।
तथापि वह मांसराशी उस कबूतरके बराबर नहीं हुई। जब राजाके शरीरका मांस चुक गया और रक्तकी धारा बहाता हुआ हडि्डयों का ढॉंचामात्र रह गया तब वे मांस काटनेका काम बंद करके स्वयं ही तराजूपर चढ़ गये। फिर तो इन्द्र आदि देवताओंसहित तीनों लोकोंके प्राणी उन नरेन्द्रके पास आ पहुँचे। कुछ देवता आकाशमें ही खड़े होकर दुन्दुभियाँ बजाने लगे। कुछ देवताओं राजा वृषदर्भको अमृतसे नहलाया और उनके ऊपर अत्यन्त सुखदायक दिव्य पुष्पोंको बारंबार वर्षा की। देव-गन्धर्वोंके समुदाय और अप्सराऍं सब ओरसे उन्हें घेरकर गाने और नाचने लगीं। वे उनके बीचमें भगवान् ब्रहाजीके समान शोभा पाने लगे। इतनेहीमें एक दिव्य समान विमान उपस्थित हुआ जिसमें सुवर्णके महल बने हुए थे। सोने और मणियोंकी बन्दनवारें लगी थीं और वैदूर्यमणिके खम्भे शोभा पा रहे थे।
युधिष्ठिर ! तुम भी शरणागतोंके लिये इसी प्रकार अपना सर्वस्व निछावर कर दो। जो मनुष्य अपने भक्त, प्रेमी और शरणागत पुरुषोंकी रक्षा करता है तथा सब प्राणियोंपर दया रखता है वह परलोकमें सुख पाता हैं। जो राजा सदाचारी होकर सबके साथ सद्बर्ताव करता है वह अपने निश्छल कर्मसे किस वस्तुको नहीं प्राप्त कर लेता। सत्यपराक्रमी, धीर और शुध्द हदयवाले काशीनरेश राजर्षि उशीनर अपने पुण्यकर्मसे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये। भरतश्रेष्ठ ! यदि दुसरा कोई भी पुरुष इसी प्रकार शरणागतकी रक्षा करेगा तो वह भी उसी गतिको प्राप्त करेगा। राजर्षि वृषदर्भ (उशीनर)- के इस चरित्रका जो सदा श्रवण और वर्णन करता हूँ वह संसार में पुण्यात्मा होता है।
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