महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 42 श्लोक 20-33
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
इस प्रकार एक-दूसरे से स्पर्धा रखते हुए उन दोनों में शपथ खाने की नौबत आ गयी। फिर तो सहसा विपुल को लक्ष्य करके वे दोनों इस प्रकार बोले- ‘हम लोगों में से जो भी झूठ बोलता है उसकी वही गति होगी जो परलोक में ब्राहामण विपुल के लिये नियत हुई है।'यह सुनकर विपुल के मुँह पर विषाद छा गया। ‘मैं ऐसी कठोर तपस्या करने वाला हूँ तो भी मेरी दुर्गति होगी। 'तब तो तपस्या करने का वह घोर परिश्रम कष्टदायक ही सिद्ध हुआ।' ‘मेरा ऐसा कौन-सा पाप है जिसके अनुसार मेरी वह दुर्गति होगी जो समस्त प्राणियों के लिये अनिष्ट है एवं इस स्त्री-पुरुष के जोड़े को मिलने वाली है, जिसका इन्होंने आज मेरे समक्ष वर्णन किया है।' नृपश्रेष्ठ! ऐसा सोचते हुए ही विपुल नीचे मुँह किये हुये दीनचित हो अपने दुष्कर्म का स्मरण करने लगे। तदनन्तर विपुल को दूसरे छ: पुरुष दिखायी पड़े, जो सोने-चॉंदी के पासे लेकर जुआ खेल रहे थे और लोभ तथा हर्ष में भरे हुए थे। वे भी वही शपथ खा रहे थे जो पहले स्त्री–पुरुष के जोड़े ने की थी। उन्होंने विपुल को लक्ष्य करके कहा-‘हम लोगों में से जो लोभ का आश्रय लेकर बेईमानी करने का साहस करेगा, उसको वही गति मिलेगी, जो परलोक में विपुल को मिलने वाली है- कुरुनन्दन! यह सुनकर विपुल ने जन्म से लेकर वर्तमान समय तक के अपने समस्त कर्मों का स्मरण किया; किंतु कभी कोई धर्म के साथ पाप का मिश्रण हुआ हो, ऐसा नहीं दिखायी देया। राजन! परंतु अपने विषय में वैसा शाप सुनकर जैसे एक आग में दूसरी आग रख दी गयी हो, उसी प्रकार विपुल का । वे पुन: अपने कर्मों पर विचार करने लगे। तात! इस प्रकार चिन्ता करते हुए उनके कई दिन और रातें बीत गयीं। तब गुरुपत्नी रुचि की रक्षा के कारण उनके मन में ऐसा विचार उठा-‘मैंने जब गुरुपत्नी की रक्षा के लिये उनके शरीर में सुक्ष्म रूप से प्रवेश किया था तब मेरे लक्षणेन्द्रिय उनकी लक्षणेन्द्रिय से और मुख उनके मुख से संयुक्त हुआ था। ऐसा अनुचित कार्य करके भी मैंने गुरुजी को यह सच्ची बात नहीं बतायी ।' महाभाग कुरुनन्दन! उस समय विपुल ने अपने मन में इसी को पाप माना और निस्संदेह बात भी ऐसी ही थी। चम्पानगरी में जाकर गुरुप्रेमी विपुल ने वे फूल गुरुजी को अर्पित कर दिये और उनका विधिपूर्वक पूजन किया।
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