महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 15-24
चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
भरतश्रेष्ठ! जिस कन्या के पिता अथवा भाई न हों, उसके साथ कभी विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह पुत्रि का-धर्मवाली मानी जाती है। (यदि पिता, भ्राता आदि अभिभावक ॠतुमती होने के पहले कन्या का विवाह न कर दें तो) ॠतुमती होने के पश्चात तीन वर्ष तक कन्या अपने विवाह की बाट देखे। चौथा वर्ष लगने पर ही वह स्वयं ही किसी को अपना पति बना ले। भरतश्रेष्ठ! ऐसा करने पर उस कन्या का उस पुरुष के साथ किया हुआ सम्बन्ध तथा उससे होने वाली संतान निम्न श्रेणी की नहीं समझी जाती। इसके विपरीत बर्ताव करने वाली स्त्री प्रजापति की दृष्टि में निन्दनीय होती है। जो कन्या माता की सपिण्ड और पिता के गोत्र की न हो, उसी का अनुगमन करें। इसे मनुजी ने धर्मानुकूल बताया है[१]युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि एक मनुष्य ने विवाह पक्का करके कन्या का मूल्य दे दिया हो, दूसरे ने मूल्य देने का वादा करके विवाह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्या को बलपूर्वक ले जाने की बात कर रहा हो, चौथा उसके भाई-बन्धुओं विशेष धन का लोभ दिखाकर ब्याह करने को तैयार हो और पाँचवा उसका पणिग्रहण कर चुका हो तो धर्मत: उसकी कन्या किसकी पत्नी मानी जायेगी? हम लोग इस विषय में यथार्थ तत्व को जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये नेत्र(पथ-प्रदर्शक)हों। भीष्मजी ने कहा- भारत! मनुष्यों के हित से सम्बन्ध रखने वाला जो कोई भी कर्म है, वह व्यवस्था लिये देखा जाता है। समस्त विचारवान पुरुष एकत्र होकर जब यह विचार कर लें कि ‘अमुक कन्या अमुक पुरुष को देनी चाहिये’ तो यह व्यवस्था ही विवाह का निश्चय करने वाली होती है। जो झूठ बोलकर इस व्यवस्था को उलट देता है, वह पाप का भागी होता है।। भार्या, पति, आचार्य, शिष्य और उपाध्याय भी यदि उपर्युक्त के विरुद्ध झूठ बोलें तो दण्ड के भागी होते हैं। परंतु दूसरे लोग उन्हें दण्ड के भागी नहीं मानते हैं। अकाम पुरुष के साथ सकामा कन्या का सहवास हो, इसे मनु अच्छा नहीं मानते हैं। अत: सर्वसम्मति से निश्चित किये हुए विवाह को मिथ्या करने के अपयश और अधर्म का कारण होता है। वह धर्म को नष्ट करने वाला माना गया है। भारत! कन्या के भाई-बन्धु जिस कन्या को धर्मपूर्वक पाणिग्रहण विधि से दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्या को धर्मपूर्वक विवाह करने वाला अथवा मूल्य देकर खरीदने वाला यदि अपने घर ले आये तो इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं होता। भला उस दशा में दोष की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सपिण्ड्य निवृति के सम्बन्ध में स्मृति का वचन है-बच्चा वरस्य वा तात: कूटस्थाद यदि सप्तम:। पंचमी चेत्तयोर्माता तत्सापिड्य निवर्तते॥ अर्थात 'यदि वर अथवा कन्या का पिता मूल पुरुष से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवीं पीढ़ी में पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सपिण्डय की निवृत्ति हो जाती है।’ पिता की ओर का सपिण्डय सात पीढ़ी तक चलता है और माता का सपिण्डय पाँच पीढ़ी तक। सात पीढ़ी में एक तो पिण्ड देने वाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं।