महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 49 श्लोक 14-28

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एकोनपञ्चाशत्तम (49) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिरने पूछा- दादाजी! हम तो वीर्य से उत्‍पन्‍न होने वाले पुत्र को ही पुत्र समझते हैं। वीर्यके बिना क्षेत्रज पुत्र का आगमन कैसे हो सकता है? तथा अध्‍यूढ को हम किस प्रकार समय-भेदन करके पुत्र समझें? भीष्‍म जी ने कहा-बेटा! जो लोग अपने वीर्य से पुत्र उत्‍पन्‍न करके अन्‍यान्‍य कारणों से उसका परित्‍याग कर देते हैं,उनका उस पर वीर्य स्‍थापन के कारण अधिकार नहीं रह जाता। वह पुत्र उस क्षेत्र के स्‍वामी का हो जाता है। प्रजानाथ! पुत्र की इच्‍छा रखने वाला पुरुष पुत्र के लिये ही जिस गर्भवती कन्‍या को भार्या रूप से ग्रहण करता है, उसका क्षेत्रज पुत्र उस विवाह करने वाले पति का ही माना जाता है। वहाँ गर्भ-स्‍थापन करने वाले का अधिकार नहीं रह जाता है। भरतश्रेष्‍ठ! दूसरे के क्षेत्र में उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र विभिन्‍न लक्षणों से लक्षित हो जाता है कि किसका पुत्र है। कोई भी असलियतको छिपा नहीं सकता, वह स्‍वत: प्रत्‍यक्ष हो जाती है। भरतनन्‍दन! कहीं-कहीं कृत्रिम पुत्र भी देखा जाता है। वह ग्रहण करने या अपना मान लेने मात्र से ही अपना हो जाता है। वहाँ वीर्य या क्षेत्र कोई भी उसके पुत्रत्‍व-निश्‍चय में कारण होता दिखायी नहीं देता। युधिष्ठिर ने पूछा- भारत! जहाँ वीर्य या क्षेत्र पुत्रत्‍व के निश्‍चय में प्रमाण नहीं देखा जाता, जो संग्रह करने मात्र से ही अपने पुत्र के रुप में दिखायी देने लगता है वह कृत्रिम पुत्र कैसा होता है? भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! माता-पिता ने जिसे रास्‍ते पर त्‍याग दिया हो और पता लगाने पर भी जिसके माता-पिता का ज्ञान न हो सके, उस बालक का जो पालन करता है, उसी का वह कृत्रिम पुत्र माना जाता है। वर्तमान समय में जो उस अनाथ बच्‍चे का स्‍वामी दिखायी देता है और उसका पालन-पोषण करता है, उसका जो वर्ण है, वही उस बच्‍चे का भी वर्ण हो जाता है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! ऐसे बालक का संस्‍कार कैसे और किस जातिके अनुसार करना चाहिये तथा वास्‍तवमें वह किस वर्ण का है, यह कैसे जाना जाये एवं किस तरह और किस जाति की कन्‍या के साथ उसका विवाह करना चाहिये? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी ने कहा-बेटा! जिसको माता-पिता ने त्‍याग दिया है, वह अपने स्‍वामी (पालक) पिता के वर्णको प्राप्‍त होता है। इसलिये उसके पालन करने वाले को चाहिये कि वह अपने ही वर्णके अनुसार उसका संस्‍कार करे। धर्म से कभी च्‍युत न होने वाले युधिष्ठिर! पालक पिता के सगोत्र बन्‍धुओं का जैसा संस्‍कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये, तथा उसी वर्ण की कन्‍या के साथ उसका विवाह भी कर देना चाहिए। बेटा! यदि उसकी माता के वर्ण और गोत्र का निश्‍चय हो जाये तो उस बालक का संस्‍कार करने के लिये माता के ही वर्ण और गोत्र को ग्रहण करना चाहिये। कानीन और अघ्‍यूढ ये दोंनों प्रकार के पुत्र निकृष्‍ट श्रेणी के ही समझे जाने योग्‍य हैं। इन दोनों प्रकार के पुत्रों को भी अपने ही समान संस्‍कार करे-ऐसा शास्‍त्र का निश्‍चय है। ब्राहामण आदि को चाहिये कि ये क्षेत्रज, अपसद तथा अध्‍यूढ –इन सभी प्रकार के पुत्रों का अपने ही समान संस्‍कार करें। वर्णो के संस्‍कार के सम्‍बन्‍ध में धर्म शास्‍त्रों का ऐसा निश्‍चय देखा जाता है। इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्‍हें बतायीं। अब और क्‍या सुनना चाहते हो?

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दान धर्म पर्व में विवाह धर्म के प्रसंगमें पुत्र प्रतिनिधि कथन विषयक उनचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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