महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-27
पञ्चाशत्तम (50) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
गौओंकी महिमाके प्रसंगमें च्यवन मुनिके उपाख्यानका आरम्भ, मुनिका मत्स्योंके साथ जालमें फॅंसकर जलसे बाहर आना युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! किसीको देखने और उसके साथ रहनेपर कैसा स्नेह होता है? तथा गौओंका महात्म्य क्या है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें। भीष्मजीने कहा-महातेजस्वी नरेश ! इस विषयमें मैं तुमसे महर्षि च्यवन और नहुषके संवादरुप प्राचीन इतिहासका वर्णन करुँगा। भरतश्रेष्ठ ! पूर्वकालकी बात हैं, भृगुके पुत्र महर्षि च्यवनने महानृ व्रतका आश्रय ले जलके भीतर रहना आरम्भ किया। वे अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोकका परित्याग करके दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए बारह वर्षो-तक जलके भीतर रहे।शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाके समान उन शक्तिशाली मुनिने सम्पूर्ण प्राणियों, विशेषत: सारे जलचर जीवोंपर अपना परम मंगलकारी पूर्ण विश्वास जमा लिया था। एक समय वे देवताओंको प्रणामकर अत्यन्त पवित्र होकर गंगा-यमुनाके संगम में जलके भीतर प्रविष्ट हुए और वहॉं काष्ठकी भॉंति स्थिर भावसे बैठ गये। गंगा-यमुनाका वेग बड़ा भयंकर था।उससे भीषण गर्जना हो रही थी।वह वेग वायुवेगकी भॉंति दु:सह था तो भी वे मुनि अपने मस्तकपर उसका आघात सहने लगे। परंतु गंगा-यमुना आदि नदियॉं और सरोवर ॠषिकी केवल परिक्रमा करते थे, उन्हें कष्ट नहीं पहुँचाते थे। भरतश्रेष्ठ ! वे बुध्दिमान् महामुनि कभी पानीमें काठकी भॉंति सो जाते और कभी उसके उपर खड़े हो जाते थे। वे जलचर जीवोंके बड़े प्रिय हो गये थे। जल-जन्तु प्रसन्नचित होकर उनका ओठ सूँघा करते थे। महातेजस्वी नरेश ! इस तरह उन्हें पानीमें रहते बहुत दिन बीत गये। तदनन्तर एक समय मछलियोंसे जीविका चलानेवाले बहुत-से मछली पकड़ने का निश्चय करके जाल हाथमें लिये हुए उस स्थानपर आये। वे मल्लाह बड़े परिश्रमी, बलवान्, शौर्यसम्पन्न और पानीसे कभी पीछे न हटनेवाले थे। वे जाल बिछानेका दृढ़ निश्चय करके उस स्थानपर आये थे। भरतवंशशिरोमणि नेरश ! उस समय जहॉं मछलियॉं रहती थीं, उतने गहरे जलमें जाकर उन्होंने अपने जालको पूर्णरुपसे फैला दिया। मछली प्राप्त करनेकी इच्छावाले केवटोंने बहुत-से उपाय करके गंगा-यमुनाके जलको जालोंसे आच्छादित कर दिया। मछली प्राप्त करनेकी इच्छावाले केवटोंने बहुत-से उपाय करके गंगा-यमुनाके जलको जालोंसे आच्छादित कर दिया। उनका यह जाल नये सूतका बना हुआ और विशाल था तथा उसकी लंबाई-चौड़ाई भी बहुत थी एवं वह अच्छी तरहसे बनाया हुआ और मजबूत था। उसीको उन्होंने वहॉं जलपर बिछाया था। थोड़ी देर बाद वे सभी मल्लाह निडर होकर पानीमें उतर गयें।वे सभी प्रसन्न और एक-दूसरेके अधीन रहनेवाले थे। उन सबने मिलकर जालको खीचना आरम्भ किया। उस जालमें उन्होने मछलियोंके साथ ही दूसरे जल-जन्तुओंको भी बॉंध लिया था। महाराज ! जाल खीचते समय मल्लाहोंने दैवेच्छासे उस जाल के द्वारा मत्स्योंसे घिरे हुए भृगुके पुत्र महर्षि च्यवनको भी खींच लिया। उनका सारा शरीर नदीके सेवार से लिपटा हुआ था। उनकी मूँछ-दाढ़ी और जटाऍं हरे रंगकी हो गयी थीं।और उनके अंगोंमें शंख आदि जलचरोंके नख लगनेसे चित्र बन गया था। ऐसा जान पड़ता था मानो उनके अगोंमें शूकरके विचित्र रोम लग गये हों। वेदोंके पारंगत उन विद्वान महर्षिको जालके साथ खिंचा देख सभी मल्लाह हाथ जोड़ मस्तक झुका पृथ्वीपर पड़ गये। उधर जालके आकर्षण से अन्यन्त खेद, त्रास और स्थलका संस्पर्श होनेके कारण बहुत-से मत्स्य मर गये।मुनिने जब मत्स्योंका यह संहार देखा, तब उन्हें बड़ी दया आयी और वे बारंबार लंबी सॉंस खीचने लगे। यह देख निषाद बोले-महामुने ! हमने अनजानमें जो पाप किया हैं, उसके लिये हमें क्षमा कर दें और हमपर प्रसन्न हों। साथ ही यह भी बतावें कि हमलोग आपका कौन-सा प्रिय कार्य करें? मल्लाहोंके ऐसा कहनेपर मछलियोंके बीचमें बैठे हुए महर्षि च्यवनने कहा-‘मल्लाहो ! इस समय जो मेरी सबसे बड़ी इच्छा है, उसे ध्यान देकर सुनो। ‘मैं इन मछलियोंके साथ ही अपने प्राणोंका त्याग या रक्षण करुगा। ये मेरे सहवासी रहे हैं।मैं बहुत दिनोंतक इनके साथ जलमें रह चुका हूँ, अत: मैं इन्हें त्याग नहीं सकता’। मुनिको यह बात सुनकर निषादोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे थर-थर कॉंपने लगे। उन सबके मुखका रंग फीका पड़ गया और उसी अवस्थामें राजा नहुषके पास जाकर उन्होंने यह सारा समाचार निवेदन किया।
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