महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 40-56
त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
राजा की इस आज्ञा के अनुसार नाना प्रकार के रत्न, स्त्रियां, वाहन, बकरे, भेड़े, सोने के अलंकार, सोना और पर्वतोपम गजराज- ये सब मुनि के पीछे-पीछे चले। राजा के सम्पूर्ण मंत्री भी इन वस्तुओं के साथ थे। उस समय सारा नगर आर्त होकर हाहाकार कर रहा था। इतने ही में मुनि ने सहसा चाबुक उठाया और उन दोनों की पीठ पर जोर से प्रहार किया। उस चाबुक का अग्र भाग बड़ा तीखा था, उसकी करारी चोट पड़ते ही राजा-रानी की पीठ और कमर में घाव हो गया फिर भी वे निर्विकार भाव से रथ ढोते रहे । पचास रात तक उपवास करने के कारण वे बहुत दुबले हो गये थे, उनक सारा शरीर कांप रहा था; तथापि वे वीर दम्पति किसी प्रकार साहस करके उस विशाल रथ का बोझ ढो रहे थे । महाराज। वे दोनों बहुत घायल हो गये थे। उनकी पीठ पर जो अनेक घाव हो गये थे उनसे रक्त बह रहा था। खून से लथपथ होने कारण वे खिले हुए पलाश के फूलों के समान दिखाई देते थे । पुरवासियों का समुदाय उन दोनों की यह दुर्दशा देखकर शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। सब लोग मुनि के शाप से डरते थे; इसलिये कोई कुछ बोल नहीं रहा था । दो-दो आदमी अलग-अलग खड़े होकर आपस में कहने लगे- ‘भाइयों। सब लोग मुनि की तपस्या का बल तो देखो, हम लोग क्रोध में भरे हुए हैं तो भी मुनिश्रेष्ठ की ओर यहां आंख उठाकर देख भी नहीं सकते। ‘इन विशुद्व अन्तःकरण वाले महर्षि भगवान च्यवन की तपस्या का बल अद्भुत है। तथा महाराज और महारानी का धर्य भी कैसा अनूठा है। यह अपनी आंखो देख लो । ‘ये इतने थके होने पर भी कष्ट उठाकर इस रथ को खींचे जा रहे हैं। भृगुनन्दन च्यवन अभी तक इनमें कोई विकार नहीं देख सके हैं। भीष्मजी जी कहते हैं- युधिष्ठिर। भृगुकुल शिरोमणि मुनिवर च्यवन ने जब इतने पर भी राजा और रानी के मन में कोई विकार नहीं देखा तब वे कुबेर की भांति उनका सारा धन लुटाने लगे । परंतु इस कार्य में भी राजा कुशिक बड़ी प्रसन्नता के साथ ऋषि के आज्ञा का पालन करने लगे। इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान च्यवन बहुत संतुष्ठ हुए । इस उत्तम रथ से उतर कर उन्होंने दोनों पति-पत्नि को भार ढोने के कार्य से मुक्त कर दिया। मुक्त करके इन दोनों से विधिपूर्वक वार्तालाप किया। भारत। भृगुपुत्र च्यवन उस समय स्नेह और प्रसन्नता से युक्त गम्भीर वाणी में बोले- मैं तुम दोनों को उत्तम वर देना चाहता हूं, बतलाओ क्या दूं? भरतभूषण। यह कहते-कहते मुनिश्रेष्ठ च्यवन चाबुक से घायल हुए उन दोनों सुकुमार राज दम्पति की पीठ पर स्नेहवश अमृत के समान कोमल हाथ फेरने लगे । उस समय राजा ने भृगुपुत्र च्यवन से कहा- अब हम दोनों को यहां तनिक भी थकावट का अनुभव नहीं हो रहा है। हम दोनों आपके प्रभाव से पूर्ण विश्राम-सुख का अनुभव कर रहे हैं। जब दोनों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान च्यवन पुनः हर्ष में भरकर बोले- मैंने पहले जो कुछ कहा है, वह व्यर्थ नहीं होगा, पूर्ण होकर ही रहेगा।‘पृथ्वीनाथ। यह गंगा का तट बड़ा ही रमनीय स्थान है। मैं कुछ काल तक व्रत परायण होकर यहीं रहूंगा ।
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