महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-18

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षष्‍ठ (6) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षष्‍ठ अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

दैवकी अपेक्षा पुरूषार्थ श्रेष्‍ठता का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा–सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के विशेषज्ञ महाप्राज्ञ पितामह ! दैव और पुरूषार्थ में कौन श्रेष्‍ठ है ? भीष्‍मजी ने कहा– युधिष्ठिर ! इस विषय में वसिष्‍ठ और ब्रह्माजी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। प्राचीन काल की बात है, भगवान वसिष्‍ठ ने लोकपितामह ब्रह्माजी से पूछा– ‘प्रभो ! दैव और पुरूषार्थ में कौन श्रेष्‍ठ है ?’ राजन् ! तब कमल जन्‍मा देवाधिदेव पितामह ने मधुर स्‍वर में युक्ति युक्‍त सार्थक वचन कहा- ब्रह्माजी ने कहा– मुने ! बीज से अंकुर की उत्‍पति होती है, अंकुर से पत्‍ते होते हैं । पत्‍तों से नाल, नाल से तने और डालियों होती हैं । उनसे पुष्‍प प्रकट होता है । फूल से फल लगता है और फल से बीज उत्‍पन्‍न होता है और बीज कभी निष्‍फल नहीं बताया गया है । बीच के बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, बीज के बिना फल भी नहीं लगता । बीज से बीज प्रकट होता है, और बीज से ही फल की उत्‍पति मानी जाती है। किसान खेत में जाकर जैसा बीज बोता है उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्‍य या पाप-जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है ।
इसी प्रकार पुण्‍य या पाप-जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है। जैसे बीज खेत में बोये बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव (प्रारब्‍ध) भी पुरूषार्थ के बिना नहीं सिद्ध होता। पुरूषार्थ खेत है और दैव को बीज बताया गया है । खेत और बीज के संयोग से ही अनाज पैदा होता है। कर्म करने वाला मनुष्‍य अपने भले या बुरे कर्म का फल स्‍वयं ही भोगता है । यह बात संसार में प्रत्‍यक्ष दिखायी देती है। शुभ कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दु:ख मिलता है । अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है । बिना किये हुए कर्म का फल कहीं नहीं भोगा जाता। पुरूषार्थी मनुष्‍य सर्वत्र भाग्‍य के अनुसार प्रतिष्‍ठा पाता है, परंतु जो अकर्मण्‍य है वह सम्‍मान से भ्रष्‍ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असहृा दु:ख भोगता है। मनुष्‍य को तपस्‍या से रूप, सौभाग्‍य और नाना प्रकार के रत्‍न प्राप्‍त होते हैं । इस प्रकार कर्म से सब कुछ मिल सकता है, परंतु भाग्‍य के भरोसे निकम्‍मे बैठे रहने वाले को कुछ नहीं मिलता। इस जगत् में पुरूषार्थ करने से स्‍वर्ग, भोग, धर्म में निष्‍ठा और बुद्धिमत्‍ता– इन सब की उपलब्धि होती है। नक्ष्‍ात्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्‍द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरूषार्थ करके ही मनुष्‍य लोक से देवलोक को गये हैं। जो पुरूषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्‍वर्य, उत्‍तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्‍मी का भी उपभोग नहीं कर सकते। ब्राह्माण शौचाचार से, क्षत्रिये पराक्रम से वैश्‍य उद्योग से तथा शूद्र तीनों वर्णों की सेवा से सम्‍पत्ति पाता है। न तो दान न देने वाले कंजूस को धन मिलता है, न नपुंसक को, न अकर्मण्‍य को, न काम से जी चुराने वाले को, ये शौर्य हीन को न तपस्‍या न करने वाले को ही मिलता है। जिन्‍होंने तीनों लोकों, दैत्‍यों तथा सम्‍पूर्ण देवताओं की भी सृष्टि की है, वे ही ये भगवान विष्‍णु समुद्र में रहकर तपस्‍या करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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