महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 19-34
षष्ठ (6) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
यदि अपने कर्मों का फल न प्राप्त हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाय और सब लोग भाग्य को ही देखते हुए कर्म करने से उदासीन हो जाय। मनुष्य के योग्य कर्म न करके जो पुरूष केवल दैवका अनुसरण करता है वह दैवका आश्रय लेकर व्यर्थ ही कष्ट उठाता है । जैसे कोई स्त्री अपने नपुंसक पति को पाकर भी कष्ट ही भोगती है। इस मनुष्य लोक में शुभाशुभ कर्मों से उतना भय नहीं प्राप्त होता, जितना कि देवलोक में थोड़े ही पाप से भय होता है। किया हुआ पुरूषार्थ ही दैवका अनुसरण करता है, परंतु पुरूषार्थ न करने पर दैव किसी को कुछ नहीं दे सकता। देवताओं में भी जो इन्द्रादि के स्थान हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्य कर्म के बिना दैव कैसे स्थिर रख सकेगा। देवता भी इस लोक में किसी के पुण्य कर्म का अनुमोदन नहीं करते हैं, अपितु अपनी पराजय की आशंका से वे पुण्यात्मा पुरूष में भयंकर आसक्ति पैदा कर देते हैं (जिससे उनके धर्म में विध्न उपस्थित हो जाय)। ऋषियों और देवताओं में सदा कलह होता रहता है (देवता ऋषियों की तपस्या में विध्न डालते हैं तथा ऋषि अपने तपोबल से देवताओं को स्थान भ्रष्ट कर देते हैं ।) फिर भी दैव के बिना केवल कथन मात्र से किसको सुख या दु:ख मिल सकता है ? क्योंकि कर्म के मूल में दैवका ही हाथ है। दैव के बिना पुरूषार्थ की उत्पति कैसे हो सकती है ?
क्योंकि प्रवृति का मूल कारण दैव ही है (जिन्होंने पूर्व जन्म में पूण्यकर्म किये हैं, वे ही दूसरे जन्म में भी पूर्व संस्कारवश पुण्य में प्रवृत होते हैं। यदि ऐसा न हो तो सभी पुण्यकर्मों में ही लग जाये) । देवलोक में भी दैववश ही बहुत-से गुण (सुखद साधन) उपलब्ध होते हैं। आत्मा ही अपना बन्धु है, आत्मा ही अपना शत्रु है तथा आत्मा ही अपने कर्म और अकर्म का साक्षी है। प्रबल पुरूषार्थ करने से पहले का किया हुआ भी कोई कर्म बिना किया हुआ-सा हो जाता है और वह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है । इस तरह पुण्य या पापकर्म अपने यथार्थ फल को नहीं दे पाते हैं। देवताओं का आश्रय पुण्य ही है । पुण्य से ही सब कुछ प्राप्त होता है । पुण्यात्मा पुरूष को पाकर दैव क्या करेगा ? पूर्वकाल में राजा ययाति पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से च्यूत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे, परंतु उनके पुण्यकर्मा दौहित्रों ने उन्हें पुन: स्वर्गलोक में पहुंचा दिया। इसी तरह पूर्वाकाल में ऐल नाम से विख्यात राजर्षि पुरूवा ब्राह्माणों के आशीर्वाद देने पर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए थे। (अब इसके विपरीत दृष्टांत देते है) अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा सम्मानित होने पर भी कौशल नरेश सौदास को महर्षि वसिष्ठ के शाप से नरभक्षी राक्षस होना पड़ा। इसी प्रकार अश्वत्थामा और परशुराम– ये दोनों ही ऋषि पुत्र ओर धनुर्धर वीर हैं । इन दोनों ने पुण्यकर्म भी किये हैं तथापि उस कर्म के प्रभाव से स्वर्ग में नहीं गये। द्वितीय इन्द्र के समान सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा वसु एक ही मिथ्या भाषण के दोष से रसातल को चले गये।
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