महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 35-49
षष्ठ (6) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
विरोचन कुमार बलिकों देवताओं ने धर्मपाश से बांध लिया और भगवान विष्णु के पुरूषार्थ से वे पातालवासी बना दिये गये। राज जनमेजय द्विज स्त्रियों का वध करके इन्द्र के चरण का आश्रय ले जब स्वर्गलोक को प्रस्थित हुए, उस समय दैव ने उसे आकर क्यों नहीं रोका। ब्रह्मर्षि वैशम्पायन अज्ञानवश ब्रह्माण की हत्या करके बाल-वध के पाप से भी लिप्त हो गये थे तो भी दैव ने उन्हें स्वर्ग जाने से क्यों नहीं रोका। पूर्वकाल में राजर्षि नृग बड़े दानी थे । एक बार किसी महायज्ञ में ब्राह्माणों को गोदान करते समय उनसे भूल हो गयी, अर्थात एक गउ को दुबारा दान में दे दिया जिसके कारण उन्हें गिरगिट की योनि में जाना पड़ा। राजर्षि धुन्धमार यज्ञ करते-करते बूढ़े हो गये तथापि देवताओं के प्रसन्नतापूर्वक दिये हुए वरदान को त्यागकर गिरिव्रज में सो गये (यज्ञ का फल नहीं पा सके)। महाबली धृतराष्ट्र–पुत्रों ने पाण्डवों का राज्य हड़प लिया था । उसे पाण्डवों ने पुन: बाहुबल से ही वापस लिया । दैवके भरोसे नहीं। तप औन नियमन संयुक्त रहकर कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि क्या दैवबल से ही किसी को शाप देते हैं, पुरूषार्थ के बल से नहीं ?
संसार में समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापी को प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है । जो मनुष्य लोभ और मोह में डूबा हुआ है उसे दैव भी संकट से नहीं बचा सकता। जैसे थोड़ी-सी वायु का सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरूषार्थ का सहारा पाकर देव का बल विशेष बढ़ जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। उद्योगहीन मनुष्य धन का बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरह के भोग और स्त्रियों को पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता, किंतु सदा उद्योग में लगा रहने वाला महामनस्वी पुरूष देवताओं द्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धन को भी प्राप्त कर लेता है। जो दान करने के कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरूष के पास उसके सत्कर्म के कारण देवता भी पहुंचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्य लोक की अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक–सा हो जाता है । परंतु जहां दान नहीं होता वह घर बड़ी भारी समृद्धि से भरा हो तो भी देवताओं की दृष्टि में वह श्मशान के ही तुल्य जान पड़ता है। इस जीव-जगत में उद्योग मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता । दैव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा दे । जैसे शिष्य गुरू को आगे करके चलता है उसी तरह दैव पुरूषार्थ को ही आगे करे स्वयं उसके पीछे चलता है । संचित किया हुआ पुरूषार्थ ही दैव को जहां चाहता है, वहां-वहां ले जाता है। मुनिश्रेष्ठ ! मैंने सदा पुरूषार्थ के ही फल को प्रत्यक्ष देखकर यथार्थ रूप से ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं। मनुष्य दैव के उत्थान से आरम्भ किये हुए पुरूषार्थ से उत्तम विधि और शास्त्रोक्त सत्कर्म से ही स्वर्गलोक का मार्ग पा सकता है।
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