महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 9
षण्णवतितम (96) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
यदि इस प्रकार हृदय देश में ध्यान-धारण न कर सके तो यथावत रूप से योग से योग का आश्रय ले। सांख्य शास्त्र के अनुसार उपासना करे । इस शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच भूत और सोलहवां मन- ये सोलह विकार हैं । पांच तन्मात्राऐं, मन, अहंकार और अवयक्त- ये आठ प्रकृतियां हैं । ये आठ प्रकृतियां और पूर्वोक्त सोलह विकार- इन चौबीस तत्वों का यहां रहने वाले तत्वज्ञ पुरूष को जानना चाहिये। इस प्रकार प्रकृति-पुरूष का विवके हो जाने से मनुष्य शरीर के बन्धन से ऊपर उठकर भवसागर से पार हो जाता है, अन्यथा नहीं । ज्ञानयुक्त बुद्वि वाले पुरूष को यही सांख्य योग मानना चाहिये। प्रतिदिन शान्तचित्त हो अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाने और अपना हित साधन करने के लिये इसी प्रकार उपर्युक्त तत्वों का विचार करने से मनुष्य को यर्थात तत्व का बोध हो जाता है और वह बन्धन से छूट जाता है । शुद्ध तत्वार्थ को तत्व से जानने वाला पुरूष अवयव रहित अद्वितीय ब्रह्म हो जाता है । मनुष्य को सदा सत्पुरूषों के समीप रहना चाहिये। विद्या में बढ़े-चढे़ पुरूषों का सेवन करना चाहिये। जो जिसके निकट रहता है, उसके समान वर्ण का हो जाता है। जैसे नील पक्षी मेरू पर्वत का आश्रय लेने से सुवर्ण के समान रंग का हो जाता है । भीष्मजी कहते हैं -युधिष्ठिर। शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले महामुनि पराशर इस प्रकार चारों वर्णों के लिये कर्तव्य का विधान बताकर तथा शुश्रुसा और समाधि से प्राप्त होने वाली गति का निरूपण करके एकाग्रत्ति हो अपने आश्रम को चले गये। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। इस लोक में महाभाग देवता किन महात्माओं को मस्तक झुकाते हैं? मैं उन समस्त ॠषियों का यर्थात परिचय सुनना चाहता हूं । भीष्मजी ने कहा-युधिष्ठिर। इस विषय में प्राचीन बातों को जानने वाले महाज्ञानी ब्राह्माण इस इतिहास का वर्णन करते हैं। तुम उस इतिहास को सुनो । जब इन्द्र वृत्रासुर को मारकर लौटे, उस समय देवता उन्हें आगे करके खड़े थे। महर्षिगण महेन्द्र की स्तुति करते थे। हरित वाहनों वाले इन्द्र रथ पर बैठकर उत्तम शोभा से सम्पन्न हो रहे थे उसी समय मातलि ने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्र से कहा । मातलि बोले- भगवन। जो सबके द्वारा वन्दित होते हैं, उन समस्त देवताओं के आप अगुआ हैं; परंतु आप भी इस जगत में जिनको मस्तक झुकाते हैं, उन महात्माओं का मुझे परिचय दीजिये । भीष्मजी कहते हैं-राजन। मातलि की वह बात सुनकर शचिपति देवराज इन्द्र ने उपर्युक्त प्रश्न पूछने वाले अपने सारथी से इस प्रकार कहा । इन्द्र बोले- मातले। धर्म, अर्थ और काम का चिन्तन करते हुए जिनकी बुद्वि कभी अधर्म में नहीं लगती, मैं प्रतिदिन उन्हीं को नमस्कार करता हूं । मातले। जो रूप और गुण से सम्पन्न हैं तथा युवतियों के हृदय-मन्दिर में हठात् प्रवेश कर जाते हैं अर्थात जिन्हें देखते ही युवतियां मोहित हो जाती हैं, ऐसे पुरूष यदि काम-भोग से दूर रहते हैं तो मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूं । मातले। जो अपने को प्राप्त हुए भोगों में ही संतुष्ट हैं- दूसरों से अधिक की इच्छा नहीं रखते। जो सुन्दर वाणी बोलते हैं और प्रवचन करने में कुशल हैं, जिनमें अहंकार और कामना का सर्वथा अभाव है तथा जो सबसे अघ्र्य पाने योग्य हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ।
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