महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 37-50
अष्टनवतितम (98) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
देवताओं को यदि सदा संतुष्ट और सम्मानित किया जाता है तो वे भी मनुष्यों को संतोष एवं सम्मान देते हैं तथा यदि उनकी अवज्ञा एवं अवहेलना की गयी तो वे अवज्ञा करने वाले नीच मनुष्य को अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर डालते हैं । इसके बाद अब मैं धूपदान की विधि का फल बताऊंगा। धूप भी अच्छे और बुरे कई तरह के होते हैं। उनका वर्णन मुझसे सुनो । धूप के मुख्यतः तीन भेद हैं- निर्यास, सारी और कृत्रिम। इन धूपों की गंध भी अच्छी और बुरी दो प्रकार की होती है। ये सब बातें मुझसे विस्तारपूर्वक सुनो । वृक्षों के रस (गोंद) को निर्यास कहते हैं, सल्लकी नामक वृक्ष के सिवा अन्य वृक्षों के प्रकट हुए नियासमय धूप देवताओं को बहुत प्रिय होते हैं। उनमें भी गुग्गुल सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा मनीषी पुरूषों का निश्चय है । जिन काष्ठों को आग में जलाने पर सुगंध प्रकट होती है, उन्हें सारी धूप कहते है। इनमें अगुरू की प्रधानता है। सारी धूप विशेषतः यक्ष, राक्षस, और नागों को प्रिय होते हैं। दैत्य लोग सल्ल की तथा उसी तरह अन्य वृक्षों की गोंद का बना हुआ धूप पसंद करते हैं । पृथ्वीनाथ। राल आदि के सुगन्धित चूर्ण तथा सुगन्धित काष्ठोषधियों के चूर्ण को घी और शक्कर से मिश्रित करके जो अष्टगंध आदि धूप तैयार किया जाता है, वही कृत्रिम है। विशेषतः वही मनुष्यों के उपयोग में आता है । वैसा धूप देवताओं, दानवों और भूतों के लिये भी तत्काल संतोष प्रदान करने वाला माना गया है। इनके सिवा विहार (भोग-विलास) के उपयोग में आने वाले और भी अनेक प्रकार के धूप हैं, जो केवल मनुष्यों के व्यवहार में आते हैं । देवताओं को पुष्पदान करने से जो गुण या लाभ बताये गये हैं, वे ही धूप निवेदन करने से भी प्राप्त होते हैं। ऐसा जानना चाहिये। धूप भी देवताओं की प्रसन्नता बढ़ाने वाले हैं । अब मैं दीपदान का परम उत्तम फल बताऊंगा। कब किस प्रकार किसके द्वारा दीप दिये जाने चाहिये, यह सब बताता हूं, सुनो । दीपक उध्वगामी तेज है, वह कांति और कीर्ति का विस्तार करने वाला बताया जाता है। अतः दीप या तेज का दान मनुष्यों के तेज की वृद्वि करता है । अंधका अंधतामिस्त्र नामक नरक है। दक्षिणायान भी अंधकार से ही आच्छन्न रहत है। इसके विपरीत उत्तरायण प्रकाशमय है। इसलिये वह श्रेष्ट माना गया है। अतः अन्धकारमय नरक की निवृत्ति के लिये दीप दान की प्रशंसा की गयी है । दीपक की षिखा उर्ध्वगामिनी होती है। वह अन्धकाररूपी रोग को दूर करने की दवा है। इसलिये जो दीप दान करता है, उसे निश्चय ही उर्ध्वगति की प्राप्ति होती है । देवता तेजस्वी, कांतिमान और प्रकाश फैलाने वाले होते हैं और राक्षक अन्धकार प्रिय होते हैं; इसलिये देवताओं की प्रसन्नता के लिये दीप दान किया जाता है। दीपदान करने से मनुष्य के नेत्रों का तेज वढ़ता है। और वह स्वयं ही तेजस्वी होता है। दान करने के पश्चात उन दीपकों को न तो बुझावें, न उठाकर अन्यत्र ले जायें और न नष्ट ही करें ।
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