महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 51-66

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अष्टनवतितम (98) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 51-66 का हिन्दी अनुवाद

दीपक चुराने बाला मनुष्य अन्धा और श्रीहीन होता है तथा मरने के बाद नरक में पड़ता है, किंतु जो दीपदान करता है, वह स्वर्गलोक में दीपमाला की भांति प्रकाशित होता है । घी का दीपक जलाकर दान करना प्रथम श्रेणी का दीप-दान है। औषधियों के रस अर्थात तिल-सरसों आदि के तेल से जलाकर किया हुआ दीपदान दूसरी श्रेणी का है। जो अपने शरीर की पुष्टि चाहता हो- उसे चर्वी, मेदा और हड्डियों से निकाले हुए तेल के द्वारा कदापि दीपक नहीं जलाना चाहिये ।।५२।। जो अपने कल्याण की इच्छा रखता हो, उसे प्रतिदिन पर्वतीय झरने के पास, वन में, देव मन्दिर में, चैराहे पर, गौशाला में, ब्राह्माण के घर में तथा दुर्गम स्थान में प्रतिदिन दीपदान करना चाहिये। उक्त स्थानों में दिया हुआ पवित्र दीप एश्‍वर्य प्रदान करने वाला होता है । दीप दान करने वाला पुरूष अपने कुल को उद्वीप्त करने वाला, शुद्धचित्त तथा श्रीसम्पन्न होता है और अन्त में वह प्रकाशमय लोकों में जाता है । अब मैं देवताओं, यक्षों, नागों, मनुष्यों, भूतों तथा राक्षसों को बलि समर्पण करने से जो लाभ होता है, जिन फलों का उदय होता है, उनका वर्णन करूंगा । जो लोग अपने भोजन करने से पहले देवताओं, ब्राम्हणों, अतिथियों और बालकों को भोजन नहीं कराते उन्हें भय रहित अमंगलकारी राक्षस ही समझो । अतः गृहस्थ मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह आलस्य छोड़कर देवताओं की पूजा करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करे और शुद्धचित्त हो सर्वप्रथम उन्हीं को आदरपूर्वक अन्न का भाग अर्पण करे । क्योंकि देवता लोग सदा गृहस्थ मनुष्यों को दी हुई बलि को स्वीकार करते और उन्हें आशीर्वाद देते हैं। देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा वाहर से आये हुए अन्य अतिथि आदि गृहस्थ के दिये हुए अन्न से ही जीविका चलाते हैं और प्रसन्न होकर उस गृहस्थ को आयु, यश तथा धन के द्वारा संतुष्ट करते हैं । देवताओं को जो बलि दी जाये, वह दही, दूध की बनी हुई, परम पवित्र, सुगन्धित, दर्षनीय और फूलों से सुशोभित होनी चाहिये । आसुर स्वभाव के लोग यक्ष और राक्षसों को रूधिर और मांस से युक्त बलि अर्पित करते हैं। जिसके साथ सुरा और आसव भी रहता है तथा ऊपर से धान का लावा छींट कर उस बलि को विभूषित किया जाता है । नागों को पघ और उत्पल युक्त बलि प्रिय होती है। गुड़ मिश्रित तिल भूतों को भेंट करें । जो मनुष्य देवता आदि को पहले बलि प्रदान करके भोजन करता है, वह उत्तम भोग से सम्पन्न, बलवान और वीर्यवान होता है। इसलिये देवताओं को सम्मान पूर्वक अन्न पहले अर्पण करना चाहिये । गृहस्थ के घर की अधिष्ठातृ देवियां उसके घर को सदा प्रकाशित किये रहती हैं, अतः कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि भोजन प्रथम भाग देकर सदा ही उनकी पूजा किया करें । भीष्मजी कहते हैं राजन। इस प्रकार शुक्राचार्य ने असुरराज बलि को यह प्रसंग सुनाया और मनु ने तपस्वी सुवर्ण को इसका उपदेश दिया। तत्पश्‍चात् तपस्वी सुवर्ण ने नारदजी को और नारदजी ने मुझे धूप, दीप आदि के दान के गुण बताये। महातेजस्वी पुत्र। तुम भी इस विधि को जानकर इसी के अनुसार सब काम करो ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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