महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-18

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नवम (9) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्माण को देने की प्रतिज्ञा करके न देने तथा उसके धनका अपहरण करने से दोष की प्राप्ति के विषय में सियार और वानर के संवाद का उल्‍लेख एवं ब्राह्माणों को दान देने की महिमा युधिष्ठिर ने पूछा – धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ महातेजस्‍वी पितामह ! जो लोग ब्राह्माणों को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके फिर मोहवश नहीं देते जो दुरात्‍मा दानका संकल्‍प करके भी दान नहीं देते वे क्‍या होते हैं ? यह धर्म का विषय मुझे यर्थाथ रूप से बताइये। भीष्‍मजी ने कहा – युधिष्ठिर ! जो थोड़ा या अधिक देने की प्रतिज्ञा करके उसे नहीं देता है, उसकी सभी आशाएं वैसे ही नष्‍ट हो जाती हैं जैसे नपुंसक की संतानरूपी फलविषयक आशा। भरतनन्‍दन ! जीव जिस रात को जन्‍म लेता है और जिस रात को उसकी मौत होती है – इन दोनों रात्रियों के बीच में जीवन भर वह जो-जो पुण्‍यकर्म करता है, भरतश्रेष्‍ठ ! उसने आजीवन जो कुछ होम, दान तथा तप किया होता है, उसका वह सब कुछ उस प्रतिज्ञा – भंग के पाप से नष्‍ट हो जाता है। भरतश्रेष्‍ठ ! धर्मशास्‍त्र ज्ञाता मनुष्‍य अपनी परम योगयुक्‍त बुद्धि से विचार करके यह उपर्युक्‍त बात कहते हैं। धर्मशास्‍त्रों विद्वान यह भी कहते हैं कि प्रतिज्ञा - भग का पाप करने वाला पुरूष एक हजार श्‍यामकर्ण घोड़ों का दान करने से उस पाप से मुक्‍त होता है। भारत ! इस विषय में विज्ञ पुरूष सियार ओर वानर के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! मनुष्‍य-जन्‍म में जो दोनों पहले एक-दूसरे के मित्र थे, वे ही दूसरे जन्‍म में सियार और वानर की योनि में प्राप्‍त हो गये । तदनन्‍तर एक दिन सियार को मरघ्‍ट में मुर्दे खाता देख वानर ने पूर्व-जन्‍म का स्‍मरण करके पूछा ' 'भैया ! तुमने पहले जन्‍म में कौन-सा भंयकर पाप किया था, जिससे तुम मरघट में घृणित एवं दुर्गन्‍ध युक्‍त मुर्दे खा रहे हो ?'वानर के इस प्रकार पूछने पर सियार नेउसे उत्‍तर दिया -'भाई वानर ! मैंने ब्राह्माण को देने की प्रतिज्ञा करके वह वस्‍तु उसे नहीं दी थी । इसी के कारण मैं इस पाप योनि में आ पड़ा हूं और उसी पाप से भूखा होने पर मुझे इस तरह का घृणित भोजन करना पड़ता है'। भीष्‍म जी कहते हैं - नरश्रेष्‍ठ ! इसके बाद सियार ने वानर से पुन: पूछा - 'तुमने कौन-सा पाप किया था ? जिससे वानर हो गये ?'। वानर ने कहा - मैं सदा ब्राह्माणों का फल चुराकर खाया करता था, इसी प्रकार पाप से वानर हुआ । अत: विज्ञ पुरूष को कभी ब्राह्माण का धन नहीं चुराना चाहिए । उनके साथ कभी झगड़ा नहीं करना चाहिए और उनके लिये जो वस्‍तु देने की प्रतिज्ञा की गयी हो, वह अवश्‍य दे देनी चाहिए। भीष्‍म जी कहते हैं - राजन् ! यह कथा मैंने एक धर्मज्ञ ब्राह्माण के मुख से सुनी है, जो प्राचीनकाल की पवित्र कथाएं सुनाता था। प्रजानाथ ! पाण्‍डुनन्‍दन ! फिर मैंने यहीबात भगवान श्रीकृष्‍ण मुख से सुनी थी, जब कि वे पहले किसी ब्राह्माण ऐसीही कथा कह रहे थे। ब्राह्माण का धन कभी नहीं चुराना चाहिए । वे अपराध करें तो भी सदा उनके प्रति क्षमाभाव ही रखना चाहिए । वे बालक, दरिद्र अथवा दीन हों तो भी उनका अनादर नहीं करना चाहिए। ब्राह्माण लोग भी मुझे सदा


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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