महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 74-84
शततम (100) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
भरतश्रेष्ठ ! कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष देवव्रत के भली-भांति पूछने पर वृद्ध मन्त्री ने बताया कि महाराज एक कन्या से विवाह करना चाहते हैं। उसके बाद भी दु:ख से दुखी देवव्रत ने पिता के सारथि को बुलाया। राजकुमारी की आज्ञा पाकर कुरुराज शान्तनु का सारथि उनके पास आया। तब महाप्राज्ञ भीष्म ने पिता के सारथि से पूछा। भीष्म बोले- सारथे ! तुम मेरेपिता के सखा हो, क्योंकि उनका रथ जोतने वाले हो, क्या तुम जानते हो कि महाराज का अनुराग किस स्त्री में है? मेरे पूछने पर तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करूंगा, उसके विपरीत नहीं करूंगा। सूत बोला- नरश्रेष्ठ ! एक धीवर की कन्या है, उसी के प्रति आपके पिता का अनुराग हो गया है। महाराज ने धीवर से उस कन्या को मांगा भी था, परंतु उस समय उसने यह शर्त रक्खी कि ‘इसके गर्भ से जो पुत्र हो, वही आपके बाद राजा होना चाहिये। ‘आपके पिताजी के मन में धीवर को ऐसा वर देने की इच्छा नहीं हुई। इधर उसका भी पक्का निश्चय है कि यह शर्त स्वीकार किये बिना मैं अपनी कन्या नहीं दूंगा। वीर ! यही वृत्तान्त है, जो मैंने आपसे निवेदन कर दिया। इसके बाद आप जैसा उचित समझें वैसा करें। यह सुनकर कुमार देवव्रत ने उस समय बूढ़े क्षत्रियों के साथ निषाद राज के पास जाकर स्वयं आने पिता के लिये उसकी कन्या मांगी। भारत ! उस मसय निषाद ने उनका बड़ा सत्कार किया और विधि पूर्वक पूजा करके आसन पर बैठने के पश्चात् साथ आये हएु क्षत्रियों की मण्डली में दाशराज ने उनसे कहा। दाशराज बोला- याचकों में श्रेष्ठ राजकुमार ! इस कन्या को देने में मैंने राज्य को ही शुल्क रक्खा है। इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हो, वही पिता के बाद राजा हो। भरतर्षभ ! राजा शान्तनु के पुत्र अकेले आप ही सबकी रक्षा के लिये पर्याप्त हैं। शस्त्रधारियों में आप सबसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं; परंतु तो भी मैं अपनी बात आपके सामने रक्खूंगा । ऐसे मनुअनुकूल और स्पृहणीय उत्तम विवाह-सम्बन्ध को ठुकराकर कौन ऐसा मनुष्य होगा जिसके मन में संताप न हो? भले ही वह साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो । यह कन्या एक आर्य पुरुष की संतान है, जो गुणों में आप लोगों के ही समान हैं और जिनके वीर्य से सुन्दरी सत्यवती का जन्म हुआ है। तात ! उन्होंने अनेक बार मुझसे आकपे पिता के विषय में चर्चा की थी। वे कहते थे, सत्यवती को व्याहने के योग्य तो केवल धर्मज्ञ राजा शान्तनु ही हैं। महान् कीर्तिवाले राजर्षि शान्तनु सत्यवती को पहले भी बहुत आग्रह पूर्वक मांग चुके हैं; किंतु उनके मांगने पर भी मैंने उनकी बात अस्वीकार कर दी थी। युवराज ! मैं कन्या का पिता होने के कारण कुछ आपसे भी कहूंगा ही। आपके यहां जो सम्वन्ध हो रहा है, उसमें मुझे केवल एक दोष दिखाई देता है, बलवान् के साथ शत्रुता। परंतप ! आप जिसके शत्रु होंगे, वह गन्धर्व हो या असुर, आपके कुपित होने पर कभी चिरजीवी नहीं हो सकता। पृथ्वीनाथ ! बस, विवाह में इतना ही दोष है, दूसरा कोई नहीं। परंतप ! आपका कल्याण हो, कन्या को देने या न देने में केवल यही दोष विचारणीय है; इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें।
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