महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 85-98
शततम (100) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनजमेजय ! निषाद के ऐसा कहने पर गंगानन्दन देवव्रत ने पिता के मनोरथ को पूर्ण करने के लिये सब राजाओं के सुनत-सुनते यह उचित उत्तर दिया- ‘सत्यवानों में श्रेष्ठ निषादराज ! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो और ग्रहण करो। ऐसी बात कह सकने वाला कोई मनुष्य न अब तक पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा। ‘लो, तुम जो कुछ चाहते या कहते हो, वैसा ही करूंगा। इस सत्यवती के गर्भ से जो पुत्र पैदा होगा, वही हमारा राजा बनेगा’। भरतवंश जनमेजय ! देवव्रत ! के ऐसा कहने पर निषाद उनसे फिर बोला। वह राज्य के लिये उनसे कोई दुष्कर प्रतिज्ञा कराना चाहता था। उसने कहा -‘अमित तेजस्वी युवाराज ! आप ही महाराज शान्तनु की ओर से मालिक बनकर यहां आये हैं। धर्मात्मन् ! इस कन्या पर भी आपका पूरा अधिकार है। आप जिसे चाहें, इसे दे सकते हैं। आप सब कुछ करने समर्थ हैं। ‘परंतु सौम्य ! इस विषय में मुझे आपसे कुछ और कहना है और वह आवश्यक कार्य है; अत: आप मेरे इस कथन को सुनिये। शत्रुदमन ! कन्याओं में प्रति स्नेह रखने वाले सगे-सम्बन्धियों का जैसा स्वभाव होता है, उसी से प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ निवेदन करूंगा। ‘सत्यधर्म पारायण राजकुमार ! आपने सत्यवती के हित के लिये इन राजाओं के बीच में जो प्रतिज्ञाक की है, वह आपके ही योग्य है। ‘महाबाहो ! वह टल नहीं सकती; उसके विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है, परंतु आपका जो पुत्र होगा, वह शायद इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ न रहे, यही हमारे मन में बड़ा भारी संशय है’। वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! निषादराज के इस अभिप्राय को समझकर सत्यधर्म में तत्पर रहने वाले कुमार देवव्रत ने उस समय पिता का प्रिय करने की इच्छा से यह कठोर प्रतिज्ञा की। भीष्म ने कहा- नरेश्रेष्ठ निषादराज ! मेरी यह बात सुनो। जो-जो ॠषि एवं अन्तरिक्ष के प्राणी यहां हों, वे सब भी सुनें। मेरे समान वचन देने वाला दूसरा नहीं है। निषाद ! मैं सत्य कहता हूं, पिता के हित के लिये सब भूमिपालों के सुनते हुए मैं जो कुछ कहता हूं, मेरी इस बात को समझो। राजाओ ! राज्य तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है; अब संतान के लिये भी अटल निश्चय कर रहा हूं। निषादराज ! आज से मेरा आजीवन अखण्ड व्रह्मचर्य व्रत चलता रहेगा। मेरे पुत्र न होने पर भी स्वर्ग में मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे। मैंने जन्म से लेकर अब तक कोई झूठ बात नहीं कही है। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक मैं संतान नहीं उत्पन्न करूंगा ।तुम पिताजी के लिये अपनी कन्या दे दो। काश ! मैं राज्य तथा मैथुन का सर्वथा परित्याग करूंगा और उर्ध्वरेता (नैष्ठिक व्रह्मचारी) होकर रहूंगा- यह मैं तुमसे सत्य कहता हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं- देवव्रत का यह वचन सुन कर धर्मात्मा निषादराज के रोंगटे खड़े हो गये। उसने तुरंत उत्तर दिया- ‘मैं यह कन्या आपके पिता के लिये अवश्य देता हूं’। उस समय अन्तरिक्ष में अप्सरा, देवता तथा ॠषिगण फूलों की वर्षा करने लगे और बोल उठे- ‘ये भयंकर प्रतिज्ञा करने वाले राजकुमार भीष्म हैं (अर्थात भीष्म के नाम से इनकी ख्याति होगी)’।
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