महाभारत आदि पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-19
सप्तविंशत्यधिकशततम (12) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
पाण्डवों तथा धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीड़ा, दुर्योधन का भीमसेन को विष खिलाना तथा गंगा में ढकेलना और भीम का नागलोक में पहुंचकर आठ कुण्डों के दिव्य रस का पान करना वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर कुन्ती, राजा धृतराष्ट्र तथा बन्धुओं सहित भीष्मजी ने पाण्डु के लिये उस समय अमृत स्वरूप स्वधामय श्राद्ध-दान किया । उन्होंने समस्त कौरवों तथा सहस्त्रों मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें रत्नों के ढेर तथा उत्तम-उत्तम गांव दिये । मरणाशौच से निवृत्त होकर भरतवंश शिरोमणि पाण्डवों ने जब शुद्धि स्नान कर लिया, तब उन्हें साथ लेकर सबने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया ।।३।। नगर और जनपद के सभी लोग मानो कोइ अपना ही भाई-बन्धु मर गया हो, इस प्रकार उन भरतकुल तिलक पाण्डु के लिये निरन्तर शोकमग्न हो गये । श्राद्ध की समाप्ति पर सब लोगों को दुखी देखकर व्यासजी ने दु:ख-शोक से आतुर एवं मोह में पड़ी हुई माता सत्यवती से कहा- । मा ! अब सुख के दिन बीत गये। बड़ा भयंकर समय उपस्थित होन वाला है। उत्तरोत्तर बुरे दिन आ रहे हैं। पृथ्वी की जवानी चली गयी । अब ऐसा भयंकर समय आयेगा, जिसमें सब ओर छल-कपट और माया का बोलबाला होगा। संसार में अनेक प्रकार के दोष प्रकट होंगे और धर्म-कर्म तथा सदाचार का लोप हेा जायगा । दुर्योधन आदि कौरवों के अन्याय से सारी पृथ्वी वीरों से शून्य हो जायगी; अत: तुम योग का आश्रय लेकर यहां से चली जाओ और योग परायण हेा तपोवन में निवास करो । तुम अपनी आंखो से इस कुल का भयंकर संहार न देखो । तब व्यासजी से तथास्तु कहकर सत्यवती अंदर गयी और अपनी पुत्रवधु से बोली- । अम्बिके ! तुम्हारे पौत्र के अन्याय से भरतवंशी वीर तथा इस नगर के सगे-सम्बन्धियों सहित नष्ट हो जायंगे- ऐसी बात मैंने सुनी है । अत: तुम्हारी राय हो, तो पुत्र शोक से पीड़ित इस दु:खिनी अम्बालिका को साथ ले मैं वन में चली जाऊं। तुम्हारा कल्याण हो । अम्बिका भी तथास्तु कहकर साथ जाने को तैयार हो गयी। जनमेजय ! फिर उत्तम व्रत का पालन करने वाली सत्यवती भीष्मजी से पूछकर अपनी दोनों पतोहुओं को साथ ले वन को चली गयी । भरतवंश शिरोमणि महाराज जनमेजय ! तब वे देवियां वन में अत्यन्त घोर तपस्या करके शरीर त्यागकर अभीष्ट गति को प्राप्त हो गयीं । वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! उस समय पाण्डवों के वेदोक्त ( समावर्तन आदि ) संस्कार हुए। वे पिता के घर में नाना प्रकार के भोग भोगते हुए पलने और पुष्ट होने लगे । धृतराष्ट्र के सब पुत्रों के साथ सुखपूर्वक खेलते हुए वे सदा प्रसन्न रहते थे। सब प्रकार की बालक्रीड़ाओं में अपने तेज से वे बढ़-चढ़कर सिद्ध होते थे । दौड़ने में, दूर रक्खी हुई किसी प्रत्यक्ष वस्तु को सबसे पहले पहुंचकर उठा लेने में, खान-पान में तथा धूल उछालने के खेल में भीमसेन धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का मानमर्दन कर डालते थे । राजन् ! हर्ष से खेल-कूद में हुए उन कौरवों को पकड़ कर भीमसेन कहीं छिप जाते थे। कभी उनके सिर पकड़कर पाण्डवों से लड़ा देते थे। धृतराष्ट्र के एक सौ एक कुमार बड़े बलवान् थे; किंतु भीमसेन बिना अधिक कष्ट उठाये अकेले ही उन सबको अपने वश में कर लेते थे। बलवान् भीम उनके बाल पकड़कर बलपूर्वक उन्हें एक दूसरे से टकरा देते और उनके चीखने-चिल्लाने पर भी उन्हें धरती पर घसीटते रहते थे । उस समय उनके घुटने, मस्तक और कंधे छिल जाया करते थे ।
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