महाभारत आदि पर्व अध्याय 127 श्लोक 20-39
>सप्तविंशत्यधिकशततम (127) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
ये जल में क्रीड़ा करते समय अपनी दोनों भुजाओं से धृतराष्ट्र के दस बालकों को पकड़ लेते और देर तक पानी में गोते लगाते रहते थे। जब वे अधमरे-से हो जाते, तब उन्हें छोड़ते थे । जब कौरव वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ने लगते, तब भीमसेन पैर से ठोकर मारकर उन पेड़ों को हिला देते थे । उनके वेग पूर्वक प्रहार से आहत हो वे वृक्ष हिलने लगते और उन पर चढ़े हुए धृतराष्ट्र कुमार भयभीत हो फलों सहित नीचे गिर पड़ते थे । कुश्ती में, दौड़ लगाने में तथा शिक्षा के अभ्यास में धृतराष्ट्र कुमार सदा लाग-डांट रखते हुए भी कभी भीमसेन की बराबरी नहीं कर सकते थे । इसी प्रकार भीमसेन भी धृतराष्ट्र पुत्रों से स्पर्धा रखते हुए उनके अत्यन्त अप्रिय कार्यों में ही लगे रहते थे। परंतु उनके मन में कौरवों के प्रति द्वेष नहीं था, वे बाल स्वाभाव के कारण ही वैसा करते थे । तब धृतराष्ट्र का प्रतापी पुत्र दुर्योधन यह जानकर कि भीमसेन में अत्यन्त विख्यात बल है, उनके प्रति दुष्टभाव प्रदर्शित करने लगा । वह सदा धर्म से दूर रहता और पाप कर्मों पर ही दृष्टि रखता था। मोह और ऐश्वर्य के लोभ से उसके मन में पापपूर्ण विचार भर गये थे । वह अपने भाइयों के साथ विचार करने लगा कि ‘यह मध्यम पाण्डु पुत्र कुन्ती नन्दन भीम बलवानों में सबसे बढ़कर है। इसे धोखा देकर कैद कर लेना चाहिये । ‘यह बलवान् और पराक्रमी तो है ही, महान् शौर्य से भी सम्पन्न है। भीमसेन अकेला ही हम सब लोगों से होड़ बद लेता है । ‘इसलिये नगरोद्यान में जब वह सो जाय, तब उसे उठाकर हम लोग गंगाजी में भी फेंक दें। इसके बाद उसके छोटे भाई अर्जुन और बड़े भाई युधिष्ठिर को बलपूर्वक कैद में डालकर मैं अकेला ही सारी पृथ्वी का शासन करूंगा।’ ऐसा निश्चय करके पापी दुर्योधन ने गंगातट पर जल-विहार के लिये ऊनी और सूती कपड़ों के विचित्र एवं विशाल गृह तैयार कराये । वे गृह सब प्रकार की अभीष्ट सामग्रियों से भरे-पूरे थे। उनके ऊपर ऊंची-ऊंची पताकाऐं फहरा रही थीं। उनमें उसने अलग-अलग अनेक प्रकार के बहुत-से कमरे बनवाये थे । भारत ! गंगा तटवर्ती प्रमाण कोटि तीर्थ में किसी स्थान पर जाकर दुर्योधन ने यह सारा आयोजन करवाया था। उसने उस स्थान का नाम रक्खा था उदकक्रीडन । वहां रसोई के काम में कुशल कितने ही मनुष्यों ने जुटकर खाने-पीने के बहुत-से भक्ष्य, भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य पदार्थ तैयार किये । तदनन्तर राजपुरुषों ने दुर्योधन को सूचना दी कि ‘सब तैयारी पूरी हो गयी है।’ तब खोटी बुद्धिवाले दुर्योधन ने पाण्डवों से कहा- । ‘आज हम लोग भांति-भांति के उद्यान और वनों से सुशोभित गंगाजी के तट पर चलें। वहां हम सब भाई एक साथ जल विहार करेंगे’ । यह सुनकर युधिष्ठिर ने ‘एवमस्तु’ कहकर दुर्योधन की बात मान ली। फिर वे सभी शूरवीर कौरव पाण्डवों के साथ नगराकार रथों तथा स्वदेश में उत्पन्न श्रेष्ठ हाथियों पर सवार हो नगर से निकले और उद्यान-वन के समीप पहुंचकर साथ आये हुए प्रजावर्ग के बड़े-बड़े लोगों को विदा करके जैसे सिंह पर्वत की गुफा में प्रवेश करे, उसी प्रकार वे सब वीर भ्राता उद्यान की शोभा देखते हुए, उसमें प्रविष्ट हुए ।
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