महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 52-66

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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 52-66 का हिन्दी अनुवाद

मैंने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं किसी कम गाय वाले ब्राह्मण से गाय मांगता हूं तो कहीं ऐसा न हो कि वह अपने अग्निहोत्र आदि कर्मों में लगा हुआ स्‍नातक गौदुग्‍ध के बिना कष्ट में पड़ जाये; अत: जिसके पास बहुत-सी गौऐं हों, उसी से धर्मानुकूल विशुद्ध दान लेने की इच्‍छा रखकर मैंने उस देश में कई बार भ्रमण किया। गंगानन्‍दन ! एक देश से दूसरे देश में घूमने पर भी मुझे दूध देने वाली गाय न मिल सकी । मैं लौटकर आया तो देखता हूं कि छोटे-छोटे बालक आटे के पानी से अश्‍वत्‍थामा को ललचा रहे हैं और वह अज्ञान मोहित बालक उस आटे के जल को ही पीकर मारे हर्ष के फूला नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा है कि ‘मैंने दूध पी लिया’ । कुरुनन्‍दन ! बालकों से घिरे हुए अपने पुत्र को इस प्रकार नाचते और उसकी हंसी उड़ायी जाती देख मेरे मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उस समय कुछ लोग इस प्रकार कह रहे थे, ‘इस धनहीन द्रोण को धिक्‍कार है, जो धन का उपार्जन नहीं करता’ । ‘जिसका बेटा दूध की लालसा से आटा मिला हुआ जल पीकर आनन्‍दमग्न हो यह कहता हुआ नाच रहा है कि ‘मैंने भी दूध पी लिया।‘ इस प्रकार की बातें करने वाले लोगों की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मेरी बुद्धि स्थिर न रह सकी। मैं स्‍वयं ही अपने आप की निन्‍दा करता हुआ मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगा- ‘मुझे दरिद्र जानकर पहले से ही ब्राह्मणों ने मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धनाभाव के कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूंगा, परंतु धन के लोभ से दूसरों की सेवा, जो अत्‍यन्‍त पाप पूर्ण कर्म है, कदापि नहीं कर सकता’ । भीष्‍मजी ! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नी को साथ लेकर पहले के स्‍नेह और अनुराग के कारण राजा द्रुपद के यहां गया । मैंने सुन रक्‍खा था कि द्रुपद का राज्‍यभिषेक हो चुका है, अत: मैं मन-ही-मन अपने को कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नता के साथ राज सिंहासन पर बैठे हुए अपने प्रिय सखा के समीप गया । उस समय मुझे द्रुपद की मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातों का बारंबार स्‍मरण हो आता था। तदनन्‍तर अपने पहले के सखा द्रुपद के पास पहुंचकर मैंने कहा- ‘नरश्रेष्ठ ! मुझ अपने मित्र को पहचानो तो सही।’ प्रभो ! मैं द्रुपद के पास पहुंचने पर उनसे मित्र की ही भांति मिला । परंतु द्रुपद ने मुझे नीच मनुष्‍य के समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा- ‘ब्राह्मण ! तुम्‍हारी बुद्धि अत्‍यन्‍त असंगत एवं अशुद्ध है । ‘तभी तो तुम मुझसे यह कहने की धृष्टता कर रहे हो कि ‘राजन् ! मैं तुम्‍हारा सखा हूं?’ समय के अनुसार मनुष्‍य ज्‍यों–ज्‍यों बूढा़ होता है, त्‍यों-त्‍यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है । पहले तुम्‍हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्‍य को लेकर थी- उस समय हम दोनों की शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का, जो रथी नहीं है, वह रथी का सखा नहीं हो सकता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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