महाभारत आदि पर्व अध्याय 133 श्लोक 19-30

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद


तदनन्‍तर श्‍वेत वस्त्र और श्‍वेत यज्ञोपवीत धारण किये आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र अश्‍वत्‍थामा के साथ रंगभूमि में प्रवेश किया; मानो मेघरहित आकाश में चन्‍द्रमा ने मंगल के साथ पदार्पण किया हो। अचार्य के सिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो गये थे। वे श्‍वेत पुष्‍पों की माला और चन्‍दन से सुशोभित हो रहे थे । बलवानों में श्रेष्ठ द्रोण ने यथा समय देव-पूजा की और श्रेष्ठ मन्‍त्रवेत्ता ब्राह्मणों से मंगल पाठ कराया । उस समय राजा धृतराष्ट्र ने सुवर्ण, मणि, रत्न तथा नाना प्रकार के वस्त्र आचार्य द्रोण और कृप को दक्षिणा के रूप में दिये। फि‍र सुखमय पुण्‍य वाचन तथा दान-होम आदि पुण्‍यकर्मों के अनन्‍तर नाना प्रकार की शस्त्र-सामग्री लेकर बहुत-से मनुष्‍यों ने उस रंगमण्‍डप में प्रवेश किया । उसके बाद भरतवंशियों में श्रेष्ठ वीर राजकुमार बड़े-बड़े रथों के साथ दस्‍ताने पहने, कमर कसे, पीठ पर तूणीर बांधे और धनुष लिये उस रंगमण्‍डप के भीतर आये । नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि उन राजकुमारों ने जेठे-छोटे के क्रम से स्थित हो उस रंगभूमि के मध्‍य भाग में बैठे हुए आचार्य द्रोण को प्रणाम करके द्रोण और कृप दोनों आचार्यों की यथोचित पूजा की । फि‍र उनसे आर्शीवाद पाकर उन सबका मन प्रसन्न हो गया। तत्‍पश्चात् पूजा के पुष्‍पों से आच्‍छादित अस्त्र-शस्त्रों को प्रणाम करके कौरवों ने रक्त चन्‍दन और फलों द्वारा पुन: स्‍वयं उनका पूजन किया वे सब-के-सब लाल चन्‍दन से चर्चित तथा लाल रंग की मालाओं से विभूषित थे। सब के रथों पर लाल रंग की पताकाऐं थीं । सभी के नेत्रों के कोने लाल रंग के थे। तदनन्‍तर तपाये हुए स्‍वर्ण के आभूषणों से विभूषित एवं शत्रुओं को संताप देने वाले कौरव-राजकुमारों ने आचार्य की द्रोण की आज्ञा पाकर पहले अपने अस्त्र एवं धनुष लेकर डोरी चढ़ायी और उस पर भांति-भांति की आकृति के बाणों का संधान करके प्रत्‍यञ्चा का टंकार करते और ताल ठोकते हुए समस्‍त प्राणियों का आदर किया। तत्‍पश्चात् वे महापराक्रमी राजकुमार वहां परम अद्भुत अस्त्र-कौशल प्रकट करने लगे । कितने ही मनुष्‍य बाण लग जाने के डर से अपना मस्‍तक झुका देते थे। दूसरे लोग अत्‍यन्‍त विस्मित होकर बिना किसी भय के सब कुछ देखते थे । वे राजकुमार घोड़ों पर सबार हो अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित और बड़ी फुर्ती के साथ छोड़े हुए नाना प्रकार के बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्‍य भेद करने लगे । धनुष-बाण लिये राजकुमारों के उस समुदाय को गन्‍धर्व नगर के समान अद्भुत देख वहां समस्‍त दर्शक आश्चर्यकित हो गये । जनमेजय ! सैकड़ों और हजारों की संख्‍या में एक-एक जगह बैठे हुए लोग आश्चर्यकित नेत्रों से देखते हुए सहसा ‘साधु-साधु’ (वाह-वाह)’ कहकर कोलाहल मचा देते थे । उन महाबली राजकुमारों ने पहले धनुष-बाण के पैतरे दिखाये। तदनन्‍तर रथ –संचालन के विविध मार्गो (शीघ्र ले जाना,लौटा लाना, दायें, बाऐं और मण्‍डलाकार चलाना आदि) का अवलोकन कराया। फि‍र कुस्‍ती लड़ने तथा हाथी और घोड़े की पीठ पर बैठकर युद्ध करने की चातुरी का परिचय दिया । इसके बाद वे ढा़ल और तलवार लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए खड्ग चलाने के शास्त्रोक्त मार्ग ( ऊपर-नीचे ) और अगल-बगल में घुमाने की कला) का प्रदर्शन करने लगे। उन्‍होंने रथ, हाथी, घोड़े और भूमि- इन सभी भूमियों पर यह युद्ध-कौशल दिखाया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।