महाभारत आदि पर्व अध्याय 143 श्लोक 1-19
त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व))
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब राज धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को इस प्रकार वारणावत जाने की आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। भरतश्रेष्ठ ! उसने अपने मन्त्री पुरोचन को एकान्त में बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, ‘पुरोचन ! यह धन-धान्य से सम्पन्न पृथ्वी जैसे मेरी है, वैसे ही तुम्हारी भी है; अत: तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये। मेरा तुमसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा विश्वासपात्र सहायक नहीं है, जिससे मिलकर इतनी गुप्त सलाह कर सकूं, जैसे तुम्हारे साथ करता हूं । ‘तात ! तुम मेरी इस गुप्त मन्त्रणा की रक्षा करो- इसे दूसरों पर प्रकट न होने दो और अच्छे उपायों द्वारा मेरे शत्रुओं को उखाड़ फेंको। मै तुमसे जो कहता हूं, वही करो । ‘पिताजी ने पाण्डवों को वारणावत जाने की आज्ञा दी है। वे उनके आदेश से (कुछ दिनों तक) वहां रहकर उत्सव में भाग लेंगे- मेले में घूमे-फिरेंगे ।‘अत: तुम खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर बैठकर आज ही वहां पहुंच जाओ, ऐसी चेष्टा करो । ‘वहां जाकर नगर के निकट ही एक ऐसा भवन तैयार कराओ जिसमें चारों ओर कमरे हों तथा जो सब ओर से सुरक्षित हो। वह भवन बहुत धन खर्च करके सुन्दन-से-सुन्दर बनवाना चाहिये। ‘सन तथा साराल आदि, जो कोई भी आग भड़काने वाले द्रव्य संसार में हैं, उन सबको उस मकान की दीवार में लगवाना । ‘घी, तेल, चर्बी तथा बहुत-सी लाह मिट्टी में मिलाकर उसी से दीवारों को लिपवाना । ‘उस घर के चारेां ओर सन, तेज, घी, लाह और लकड़ी आदि सब वस्तुऐं संग्रह करके रखना। अच्छी तरह देख-भाल करने पर भी पाण्डवों तथा दूसरे लोगों को भी इस बात की शंका न हो कि यह घर आग भड़काने वाले पदार्थों से बना है, इस तरह पूरी सावधानी के साथ राजभवन का निमार्ण कराना चाहिये। इस प्रकार महल बन जाने पर जब पाण्डव वहां जायें, तब उन्हें तथा सुहृदों सहित कुन्ती देवी को भी बड़े आदर-सत्कार के साथ उसी में रखना । ‘वहां पाण्डवों के लिये दिव्य आसन, सवारी और शय्या आदि की ऐसी (सुन्दर) व्यवस्था कर देना, जिसे सुनकर मेरे पिताजी संतुष्ट हों। जब तक समय बदलने के साथ ही अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि न हो जाय, तब तक सब काम इस तरह करना चाहिये कि वारणावत नगर के लोगों को इसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो सके। ‘जब तुम्हें यह भलीभांति ज्ञात हो जाय कि पाण्डव लोग यहां विश्वस्त होकर रहने लगे हैं, इनके मन में कहीं से कोई खटका नहीं रह गया है, तब उनके सो जाने पर घर के दरवाजे की ओर से आग लगा देना । ‘उस समय लोग यही समझेंगे कि अपने ही घर में आग लगी थी, उसी में पाण्डव जल गये। अत: वे पाण्डवों की मृत्यु के लिये कभी हमारी निन्दा नहीं करेंगे’ । पुरोचन ने दुर्योधन के सामने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की एवं खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर आरूढ़ हो वहां से वारणावत नगर केलिये प्रस्थान किया । राजन् ! पुरोचन दुर्योधन की राय के अनुसार चलता था। वारणावत में शीघ्र ही पहुंचकर उसने राजकुमार दुर्योधन के कथनानुसार सब काम पूरा कर लिया ।
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