महाभारत आदि पर्व अध्याय 149 श्लोक 18-19

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एकोनपञ्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 18-19 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार दूसरे-दूसरे पुरवासीजन भी पाण्‍डवों के लिये बहुत शोक करने लगे। विदुरजी ने बहुत थोड़ा शोक मनाया। क्‍योंकि वे वास्‍तविक वृतान्‍त से परिचित थे। तदनन्‍तर भीष्‍मजी यह सुनकर कि राजा पाण्‍डु के पुत्र अपनी माता के साथ जल मरे हैं, अत्‍यन्‍त व्‍यथित हो उठे और विलाप करने लगे। भीष्‍मजी बोले-ववे दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन उत्‍साह-शून्‍य हो गये हों, ऐसा तो नहीं प्रतीत होता। यदि वे वेग से अपने शरीर का धक्‍का देते तो सुद्दढ़ मकान को भी तोड़ फोड़ सकते थे। अत: पाण्‍डवों के साथ कुन्‍ती की मृत्‍यु हो गयी हैं, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता।यदि सचमूच उन सबकी मृत्‍यु हो चुकी है, तब तो यह सभी प्रकार से बहुत बुरी बात हुई है। ब्राह्मणों ने तो धर्मराज युधिष्ठिर के विषय में यह कहा था कि वे धर्म के दिये हुए राजकुमार सत्‍यवती, सत्‍यवादी एवं शुभ लक्षणों से सम्‍पन्‍न होंगे। ऐसे वे पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर काल के अर्थ में कैसे हो गये ? जो अपने आपको आदर्श बनाकर तदनुरुप दूसरों के साथ बर्ताव करते थे, वे ही कुरुकुल शिरोमणी युधिष्ठिर अपनी माता के साथ काल के अधीन कैसे हो गये ? जिन्‍होंने युवराज पद पर अभिषिक्‍त होते ही पिता के समान ही अपने सत्‍य एवं धर्मपूर्ण बर्ताव के द्वारा अपना ही नहीं, राजा पाण्‍डु के भी यश का विस्‍तार किया था, वे युधिष्ठिर भी काल के अधीन हो गये। ऐसे निकम्‍मे काल को धिक्‍कार है। उतम कुल में उत्‍पन्‍न कुन्‍ती, जो पुत्रों के अभिलाषा रखने के कारण ही वनवास का कष्‍ट भोगती और दु:ख पर दु:ख उठाती रही तथा पति के मरने पर भी उनका अनुगमन न कर सकी, जिस बहुत थोड़े समय तक ही पति का प्रेम प्राप्‍त हुआ था, वही कुन्‍तीभोजकुमारी अभी अपने मनोरथ पूरे भी न कर पायी थी कि पुत्रों के साथ दग्‍ध हो गयी। जिनके भरे हुए कंधे और मनोहर भुजाएं थी, जो मेरु-‍शिखर के समान सुन्‍दर एवं तरुण थे, वे भीमसेन मर गये, यह सुनकर भी मन को विश्‍वास नहीं होता। जो सदा उतम मार्गो पर चलते थे, जिनके हाथों में बड़ी फुर्ती थी, जिनका निशाना कभी चूकता नहीं था, जो रथ हांकने में कुशल, दूर तक का लक्ष्‍य बेंधनेवाले, कभी व्‍याकुल न होने वाले, महापराक्रमी और महान् अस्‍त्रों के ज्ञाता थे, जिन्‍होंने प्राच्‍य, सौंवीर और दाक्षिणात्‍य नरेशों को परास्‍त किया था, जिस शूरवीर ने तीनों लोकों में अपने पुरुषार्थ को प्रसिद्ध किया था और जिनके जन्‍म लेने पर कुन्‍ती और महापराक्रमी पाण्‍डु भी शोकरहित हो गये थे, वे इन्‍द्र के समान विजयो वीर अर्जुन भी काल के अधीन कैसे हो गये ? जो बैल के से हष्‍ट-पुष्‍ट कंधो से सुशोभित थे तथा सिंहकी सी मस्‍तानी चाल से चलते थे, वे शत्रुओं का संहार करनेवाले नकुल-सहदेव सहसा मृत्‍यु को कैसे प्राप्‍त हो गये ? वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जलाञ्जलि दान देते समय भीष्‍मजी ने यह विलाप सुनकर विदुरजी ने देश और काल का भांति-भांति विचार करके कहा-‘नरश्रेष्‍ठ ! आप दुखी न हों। महाव्रती वीर ! आप शोक त्‍याग दें, पाण्‍डवों की मृत्‍यु न हुई है। मैंने उस अवसर पर जो उचित था, वह कार्य कर दिया है। भारत ! आप उन पाण्‍डवों के लिये अलाञ्जलि न दें।‘ तब भीष्‍मजी विदुर का हाथ पकड़कर उन्‍हें कुछ दूर हटा ले गये, जहां से कौरवों लोग उनकी बात न सुन सके। फिर वे आंसू बहाते हुए गद् गद् वाणी में बोले। भीष्‍मजी ने कहा-तात ! पाण्‍डु के महारथी पुत्र कैसे जीवित बच गये ?पाण्‍डु का पक्ष किस तरह हमारे लिये नष्‍ट होने से बच गया? जैसे गरुड़ ने अपनी माता की रक्षा की थी, उसी प्रकार तुमने किस तरह पाण्‍डुकुमारों को बचाकर हम सब लोगों से महान् भय से रक्षा की है? वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार पूछे जाने पर धर्मात्‍मा विदुर ने कौरवों के न सुनते हुए अद्भुत कर्म करनेवाले भीष्‍मजी से इस प्रकार कहा-विदुर बोले-धृतराष्‍ट्र, शकुनि तथा राजा दुर्योधन का यह पक्‍का विचार हो गया था कि पाण्‍डवों को नष्‍ट कर दिया जाय। तदनन्‍तर लाक्षागृह में जाने पर जब दुर्योधन की आज्ञा से पुत्रों सहित कुन्‍ती को जला देने की योजना बन गयी, तब मैंने एक भूमि खोदने वाले को बुलाकर भूगर्भ में गुफासहित सुरंग खुदवायी और कुन्‍ती सहित पाण्‍डवों को, घर में आग लगाने से पहले ही निकाल लिया, अत: अपने मन में शोक को स्‍थान न दीजिये। राजन् ! शत्रुओं को संताप देनेवाले पाण्‍डव अपनी माता के साथ उस महाभंयकर अग्निदाह से दूर निकल गये हैं। मेरे पूर्वोक्‍त उपाय से ही यह कार्य सम्‍भव हो सका है। पाण्‍डव निश्‍चय ही जीवित हैं, अत: आप उनके लिये शोक न दीजिये। जब तक यह समय बदलकर अनुकुल नहीं हो जाता, तब तक वे पाण्‍डव छिपे रहकर इस भूतल पर विरेंगे। अनुकूल समय आने पर सब राजा इस पृथ्‍वी पर युधिष्ठिर को देंखेंगे। (इधर) महाबली पाण्‍डव भी वारणागत नगर से निकलकर माता के साथ गंगा नदी के तट पर पहुंचे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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