महाभारत आदि पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-20
षष्टयधिकशततम (160) अध्याय: आदि पर्व (बकवध पर्व )
कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
कुन्ती बोली- ब्रह्मन् ! आपको अपने ऊपर आये हुए इस भय से किसी प्रकार विषाद नहीं करना चाहिये। इस परिस्थिति में उस राक्षस से छूटने का उपाय मेरी समझ में आ गया। आपको तो एक ही नन्हा–सा पुत्र और एक ही तपस्विनी कन्या है, अत: इन दोनों का तथा आपकी पत्नी का भी वहां जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। विप्रवर ! मेरे पांच पुत्र हैं, उनमें से एक आपके लिये उस पापी राक्षस की बलि-सामग्री लेकर चला जायगा।ब्राह्मण ने कहा-मैं अपने जीवन की रक्षा के लिये किसी तरह ऐसा नहीं करुंगा। एक तो ब्राह्मण, दूसरे अतिथि-के प्राणों का नाश मैं अपने तुच्छ स्वार्थ के लिये कराऊं ! यह कदापि सम्भव नहीं है। ऐसा निन्दनीय कार्य नीच और अधर्मी जनता में भी नहीं देखा जाता। उचित तो यह है कि ब्राह्मण के लिये स्वयं अपने को और अपने पुत्र को भी निछावर कर दे।।5।। इसी में मुझे अपना कल्याण समझना चाहिये तथा यही मुझे अच्छा लगता है। ब्रह्महत्या और आत्म हत्या में मुझे आत्महत्या ही श्रेष्ठ जान पड़ती है। ब्रह्महत्या बहुत बड़ा पाप है। इस जगत् में उससे छूटने का कोई उपाय नहीं है। अनजान में भी ब्रह्महत्या करने की अपेक्षा मेरी द्दष्टि में आत्महत्या कर लेना अच्छा है। कल्याणि ! मैं स्वयं तो आत्महत्या की इच्छा करता नहीं; परंतु यदि दूसरों ने मेरा वध कर दिया तो उसके लिये मुझे कोई पाप नहीं लगेगा। यदि मैंने जान-बूझकर ब्राह्मण का वध करा दिया तो वह बड़ा ही नीच और क्रूरतापूर्ण कर्म होगा। उससे छुटकारा पाने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। घर पर आये हुए तथा शरणार्थी का त्याग और अपनी रक्षा के लिये याचना करने वाले का वध-यह विद्वानों की राय में अत्यन्त क्रूर एवं निन्दित कर्म हैं। आपद्धर्म के ज्ञाता प्राचीन महात्माओं ने कहा है कि किसी प्रकार भी क्रूर एवं निन्दित कर्म नहीं करना चाहिये। अत: आज अपनी पत्नी के साथ स्वयं मेरा विनाश हो जाय,यह श्रेष्ठ है; किंतु ब्राह्मण वध की अनुमती मैं कदापि नहीं दे सकता। कुन्ती बोली- ब्रह्मन् ! मेरा भी यह स्थिर विचार है आपको ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिये। यों तो मुझे भी अपना कोई पुत्र अप्रिय नहीं है, चाहे मेरे सौ पुत्र ही क्यों न हों। किंतु वह राक्षस मेरे पुत्र का विनाश करने में समर्थ नहीं है; क्योंकि मेरा पुत्र पराक्रमी, मन्त्रसिद्ध और तेजस्वी है। मेरा यह निश्चित विश्वास है कि यह सारा भोजन राक्षस के पास पहुंचा देगा और उससे अपने आपको भी छुड़ा लेगा। मैंने पहले भी बहुत-से बलवान् और विशालकाय राक्षस देखे हैं, जो मेरे वीर पुत्र से भिड़कर अपने प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। परंतु ब्रह्मन ! आपको किसी से किसी तरह यह बात कहनी नहीं चाहिये। नहीं तो लोग मन्त्र सीखने के लोभ से कौतूहल वश मेरे पुत्रों को तंग करेंगे । और यदि मेरा पुत्र गुरु की आज्ञा लिये बिना अपना मन्त्र किसी को सिखा देगा तो वह सीखने वाला मनुष्य उस मन्त्र से वैसा कार्य नहीं कर सकेगा, जैसा मेरा पुत्र कर लेता है। इस विषय में साधु पुरुषों का ऐसा ही मत है। कुन्तीदेवी के यों कहने पर पत्नी सहित वह ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कुन्ती के अमृत-तुल्य जीवनदायक मधुर वचनों की बड़ी प्रशंसा की।।29।। तदनन्तर कुन्ती और ब्राह्मण ने मिलकर वायुनन्दन उक्त भीमसेन से कहा-‘तुम यह काम कर दो।‘ भीमसेन ने उन दोनों से ‘तथास्तु’ कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवध पर्व में भीम के द्वारा बकवध की स्वीकृति विषयक एक सौ साठवां अध्याय पूरा हुआ।
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