महाभारत आदि पर्व अध्याय 161 श्लोक 1-16
एकष्टयधिकशततम (161) अध्याय: आदि पर्व (बकवध पर्व )
भीमसेन को राक्षस के पास भेजने के विषय में युधिष्ठिर और कुन्ती की बातचीत
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इस कार्य को पूरा करुंगा’, उसी समय पूर्वोक्त सब पाण्डव भिक्षा लेकर वहां आये। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन की आकृति से ही समझ लिया कि आज ये कुछ करनेवाले हैं; फिर उन्होंने एकान्त में अकेले बैठकर माता से पूछा। युधिष्ठिर बोले- मां ! ये भयंकर पराक्रमी भीमसेन कौन-सा कार्य करना चाहते हैं ? वे आपकी राय से अथवा स्वयं ही कुछ करने को उतारु हो रहे हैं ? कुन्ती ने कहा- बेटा ! शत्रुओं का संताप करनेवाला भीमसेन मेरी ही आज्ञा से ब्राह्मण के हित के लिये तथा सम्पूर्ण नगर को संकट से छुड़ाने के लिये आज एक महान् कार्य करेगा। युधिष्ठिर ने कहा- मां ! आपने यह असह्य और दुष्कर साहस क्यों किया ? साधु पुरुष अपने पुत्र के परित्याग को अच्छा नहीं बताते। दूसरे के बेटे के लिये आप पुत्र को क्यों त्याग देना चाहती हैं ? पुत्र का त्याग करके आपने लोक और वेद दोनों के विरुद्ध कार्य किया है । जिसके बाहुबल का भरोसा करके हम सब लोग सुख से सोते हैं और नीच शत्रुओं ने जिस राज्य को हड़प लिया है, उसको पुन: वापस लेना चाहते हैं,। जिस अमित तेजस्वी वीर के पराक्रम का चिन्तन करके शकुनि सहित दुर्योधन को दु:ख के मारे सारी रात नींद नहीं आती थी, । जिस वीर के बल से हम लोग लाक्षागृह तथा दूसरे-दूसरे पापपूर्ण अत्याचारों से बच पाये और दुष्ट पुरोचन भी मारा गया,।जिसके बल-पराक्रम का आश्रय लेकर हम लोग धृतराष्ट्र पुत्रों को मारकर धन-धान्य से सम्पन्न इस (सम्पूर्ण) पृथ्वी को अपने अधिकार में आयी हुई ही मानते हैं, उस बलवान पुत्र के त्याग का निश्चय आपने किस बुद्धि से किया है ? क्या उन अनेक दु:खों के कारण अपनी चेतना खो बैठी हैं ? आपकी बुद्धि लुप्त हो गयी है। कुन्ती ने कहा- युधिष्ठिर ! तुम्हें भीमसेन के लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैंने जो यह निश्चय किया है, वह बुद्धि की दुर्बलता से नहीं किया है। बेटा ! हम लोग यहां इस ब्राह्मण के घर में बड़े-सुख से रहे हैं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को हमारी कानों कान खबर नहीं होने पायी है। इस घर में हमारा इतना सत्कार हुआ है कि हमने अपने पिछले दु:ख और क्रोध को भुला दिया है। पार्थ ! ब्राह्मण के इस उपकार से उॠण होने का यही एक उपाय मुझे दिखायी दिया। मनुष्य वही है, जिसके प्रति किया हुआ उपकार नष्ट न हो (जो उपकार को भुला न दे)। दूसरा मनुष्य उसके लिये जितना उपकार करे, उससे कई गुना अधिक प्रत्युपकार स्वयं उसके प्रति करना चाहिये। मैंने उस दिन लाक्षागृह में भीमसेन का महान् पराक्रम देखा तथा हिडिम्ब वध की घटना भी मेरी आंखों के सामने हुई ।इससे भीमसेन पर मेरा पूरा विश्वास हो गया है। भीम का महान् बाहुबल दस हजार हाथियों के समान है, जिससे वह हाथी के समान बलशाली तुम सब भाइयों को वारणावत नगर से ढोकर लाया है।
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