महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 19-37
एकोनसप्तधिकशततम (169) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
प्राचीन काल में हिमालय के स्वर्णशिखर से निकली हुई गंगा सात धाराओं में विभक्त हो समुन्द्र में जाकर मिल गयी हैं। जो पुरुष गंगा, यमुना, प्लक्ष की जड़ से प्रकट हुई सरस्वती, रथस्था, सरयू, गोमती और गण्ड की-इन सात नदियों का जल पीते हैं, उनके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह गंगा बड़ी पवित्र नदी हैं। एकमात्र आकाश ही इनका तट है। गन्धर्व ! ये आकाशमार्ग से विचरती हुई गंगा देवलोक में अलकनन्दा नाम धारण करती हैं। ये ही वैतरणी होकर पितृलोक में बहती हैं। वहां पापियों के लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है। इस लोक में आकर इनका नाम गंगा होता है। यह श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी का कथन है। ये कल्याणमयी देवनदी सब प्रकार की विघ्न–बाधाओं से रहित एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति करानेवाली हैं। तुम उन्हीं गंगाजी पर किसलिये रोक लगाना चाहते हो ? यह सनातन धर्म नहीं है। जिसे कोई रोक नहीं सकता, जहां पहुंचने में कोई बाधा नहीं है, भागीरथी के उस पावन जल का तुम्हारे कहने से हम अपने इच्छानुसार स्पर्श क्यों न करें ?
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! अर्जुन की यह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित हो गया और धनुष नवाकर विषैले सांपों की भांति तीखे बाण छोड़ने लगा। यह देख पाण्डुनन्दन धनंजय ने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढाल से रोककर उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये।
अर्जुन ने कहा- गन्धर्व ! जो अस्त्रविद्या के विद्वान हैं, उन पर तुम्हारी यह घुड़ की नहीं चल सकती। अस्त्रविद्या के मर्मज्ञों पर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेन की तरह विलीन हो जायगी। गन्धर्व ! मैं जानता हूं कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये मैं तुम्हारे साथ माया से नहीं, दिव्यास्त्र से युद्ध करुंगा। गन्धर्व ! यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकाल में इन्द्र के माननीय गुरु बृहस्पतिजी ने भरद्वाज मुनि को दिया था। भरद्वाज से इसे अग्निवेश्य ने और अग्निवेश्य से मेरे गुरु द्रोणाचार्य ने प्राप्त किया है। फिर विप्रवर द्रोणाचार्य ने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो गन्धर्व पर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्र ने गन्धर्व के रथ को जलाकर भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्र के तेज से मूढ होकर नीचे मुंह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुन ने उसके फूल की मालाओं से सुशोभित केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। अस्त्र के आघात से वह गन्धर्व अचेत हो गया था। उस गन्धर्व की पत्नी का नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पति के जीवन की रक्षा के लिये महाराज युधिष्ठिर की शरण ली।। गन्धर्वी बोली-महाभाग ! मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेव को आप छोड़ दीजिये। प्रभो ! मैं गन्धर्व पत्नी कुम्भीनसी आपकी शरण में आयी हूं।
युधिष्ठिर ने कहा- तात ! शत्रुसूदन अर्जुन ! यह गन्धर्व युद्ध में हार गया और अपना यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रु को कौन मारता है ? इसे जीवित छोड़ दो।
अर्जुन बोले-गन्धर्व ! जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं।
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