महाभारत आदि पर्व अध्याय 169 श्लोक 38-53
एकोनसप्तधिकशततम (169) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
गन्धर्व ने कहा- अर्जुन ! मैं परास्त हो गया, अत: अपने पहले नाम अंगारपर्ण को छोड़ देता हूं। अब मैं जनसमुदाय में अपने बल की श्र्लाघा नहीं करुंगा और न इस नाम से अपना परिचय ही दूंगा। (आज की पराजय से) मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने दिव्यास्त्रधारी अर्जुन को (मित्ररुप में ) प्राप्त किया है और अब मैं इन्हें गन्धर्वों की माया से संयुक्त करना चाहता हूं।। इनके दिव्यास्त्र अग्निसे मेरा यह विचित्र एवं उत्तम रथ दग्ध हो गया है। पहले मैं विचित्र रथ के कारण ‘चित्ररथ’ कहलाता था; परंतु अब मेरा नाम ‘दग्धरथ’ हो गया। मैंने पूर्वकाल में यहां तपस्या द्वारा जो यह विद्या प्राप्त की है, उसे आज अपने प्राणदाता महात्मा मित्र को अर्पित करुंगा।। जिन्होंने अपने वेग से शत्रु की शक्ति को कुण्ठित करके उस पर विजय पायी और फिर जब वह शत्रु शरण में आ गया, तब जो उसे प्राणदान दे रहे हैं, वे किस कल्याण की प्राप्ति के अधिकारी नहीं है? यह चाक्षुसी नामक विद्या है, जिसे मनु ने सोम को दिया। सोम ने विश्र्वासु को दिया और विश्र्वासु ने मुझे प्रदान किया है। यह गुरु की दी हुई विद्या यदि किसी कायर को मिल गयी तो नष्ट हो जाती है। (इस प्रकार) मैंने इसके उपदेश की परम्परा का वर्णन किया है। अब इसका बल भी मुझसे सुन लीजिये। तीनों लोकों में जो कोई भी वस्तु हैं, उसमें से जिस वस्तु को आंख से देखने की इच्छा हो, उसे रथ इस विद्या के प्रभाव से कोई भी देख सकता है और जिस रुप में देखना चाहे, उसी रुप में देख सकता है। जो एक पैर से छ: महीने तक खड़ा रहकर तपस्या करे, वही इस विद्या को पा सकता है। परंतु आपको इस व्रत का पालन या तपस्या किये बिना ही मैं स्वयं उक्त विद्या की प्राप्ति कराऊंगा।।46।। राजन् ! इस विद्या के बल से ही हम लोग मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जाते हैं और देवताओं के तुल्य प्रभाव दिखा सकते हैं।। पुरुषशिरोमणि ! मैं आपको और आपके भाइयों को अलग-अलग गन्धर्वलोक के सौ-सौ घोड़े भेंट करता हूं। वे घोड़े देवताओं और गन्धर्वों के वाहन हैं। उनके शरीर की कान्ति दिव्य है। वे मन के समान वेगशाली और आवश्यकता के अनुसार दुबले-मोटे होते हैं; किंतु उनका वेग कभी कम नहीं होता। पूर्वकाल में वृत्रासुर का संहार करने के निमित्त इन्द्र के लिये जिस व्रज का निर्माण किया गया था, वृत्रासुर के मस्तक पर पड़ते ही उसके दस बड़े और सौ टुकड़े हो गये।। तब से अनेक भागों में बंटे हुए उस व्रज के प्रत्येक भाग की देवतालोग उपासना करते हैं। लोक में उत्कृष्ट धन और यश आदि जो कुछ भी वस्तु है, उसे वज्र का स्वरुप माना गया है। (अग्नि में आहुति देने के कारण) ब्राह्मण का दाहिना हाथ वज्र है। अप्रिय का रथ वज्र है। वैश्यलोग जो दान करते हैं, वह भी वज्र है और शुद्र लोग जो सेवाकार्य करते हैं, उसे भी वज्र ही समझना चाहिये। क्षत्रिय के रथरुपी वज्र का एक विशिष्ट अंग होने से घोड़ों को अवध्य बताया गया है। गन्धर्वदेश की घोड़ी रथ को वहन करनेवाले रथाग-स्वरुप (वज्रस्वरुप) घोड़े को जन्म देती है। वे घोड़े सब अश्वों में शूरवीर माने जाते हैं।
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