महाभारत आदि पर्व अध्याय 170 श्लोक 19-36
सप्तत्यधिकशततम (170) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
वे अपनी कमनीय कान्ति से चन्द्रमा को और तेज से सूर्यदेव को भी तिरस्कृत करते थे। राजा संवरण मित्रों तथा शत्रुओं की मण्डली में भी अपनी दिव्य शोभा से प्रकाशित होते थे। कुरुनन्दन ! ऐसे उत्तम गुणों से विभूषित तथा श्रेष्ठ आचार-व्यवहार से युक्त राजा संवरण को भगवान् सूर्य ने स्वयं ही अपनी पुत्री तपती को देने का निश्चय कर लिया। कुन्तीनन्दन ! एक दिन अमितपराक्रमी श्रीमान् राजा संवरण पर्वत के समीपवर्ती उपवन में हिंसक पशुओं का शिकार कर रहे थे। कुन्तीपुत्र ! शिकार खेलते समय ही राजा का अनुपम अश्व पर्वत पर भूख-प्यास से पीड़ित हो मर गया। पार्थ ! घोड़े की मृत्यु हो जाने से राजा संवरण पैदल ही उस पर्वत-शिखर पर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विशाललोचना कन्या देखी, जिसकी समता करनेवाली स्त्री कहीं नहीं थी। शत्रुओं की सेना का संहार करनेवाले नृपश्रेष्ठ संवरण अकेले थे और वह कन्या भी अकेली ही थी। उसके पास पहुंचकर राजा एकटक नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए खड़े रह गये। पहले तो उसका रुप देखकर नरेश ने अनुमान किया कि होने न हो ये साक्षात् लक्ष्मी हैं; फिर ध्यान में यह बात आयी कि सम्भव है, भगवान् सूर्य की प्रभा ही सूर्यमण्डल से च्युत होकर इस कन्या के रुप में आकाश से पृथ्वी पर आ गयी हो। शरीर और तेज से वह आग की ज्वाला-सी जान पड़ती थी। उसकी प्रसन्नता और कमनीय कान्ति से ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह निर्मल चन्द्रकला हो। सुन्दर कजरारे नेत्रोंवाली वह दिव्य कन्या जिस पर्वत-शिखर पर खड़ी थी, वहां वह सोने की दमकती हुई प्रतिमा-सी सुशोभित हो रही थी। विशेषत: उसके रुप और वेश से विभूषित हो वृक्ष, गुल्म और लताओं सहित वह पर्वत सुवर्णमय सा जान पड़ता था। उसे देखकर संवरण की समस्त लोकों की सुन्दरी युवतियों में अनादर-बुद्धि हो गयी। राजा यह मानने लगे कि आज मुझे अपने नेत्रों का फल मिल गया। भूपाल संवरण ने जन्म से लेकर (उस दिन तक) जो कुछ देखा था, उसमें कोई भी रुप उन्हें इस (दिव्य किशोरी) के सद्दश नहीं प्रतीत हुआ। उस कन्या ने उस समय अपने उत्तम गुणमय पाशों से राजा के मन और नेत्रों को बांध लिया। वे अपने स्थान से हिल-डुल तक न सके।उन्हें किसी बात की सुध-बुध (भी) न रही। वे सोचने लगे, निश्चय ही ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण लोकों के सौन्दर्य-सिन्धु को मथकर इस विशाल नेत्रोंवाली किशोरी के इस मनोहर रुप का आविष्कार किया होगा। इस प्रकार उस समय उसकी रुप-सम्पत्ति से राजा संवरण ने यही अनुमान किया कि संसार में इस दिव्य कन्या की समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है। कल्याणमय कुल में उत्पन्न हुए वे नरेश उस कल्याण स्वरुपा कामिनी को देखते ही काम-बाण से पीड़ित हो गये। उनके मन में चिन्ता की आग जल उठी। तदनन्तर तीव्र कामाग्नि से जलते हुए राजा संवरण ने लज्जारहित होकर उस लज्जाशीला एवं मनोहारिणी कन्या से इस प्रकार पूछा- ‘रम्भोरु ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? और किस लिये यहां खड़ी हो ? पवित्र मुसकानवाली ! तुम इस निर्जन वन में अकेली कैसे विचर रही हो ?
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