महाभारत आदि पर्व अध्याय 170 श्लोक 1-18
सप्तत्यधिकशततम (170) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
सूर्यकन्या तपती को देखकर राजा संवरण का मोहित होना
अर्जुन ने कहा-गन्धर्व ! तुमने ‘तपतीनन्दन’ कहकर जो बात यहां मुझसे कही है, उसके सम्बन्ध में मैं यह जानना चाहता हूं कि तापत्य का निश्चित अर्थ क्या है ? साधुस्वभाव गन्धर्वराज ! यह तपती कौन है, जिसके कारण हम लोग तापत्य कहलाते हैं ? हम तो अपने को कुन्ती का पुत्र समझते हैं। अत: ‘तापत्य’ का यथार्थ रहस्य क्या है, यह जानने की मुझे बड़ी इच्छा हो रही है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उनके यों कहने पर गन्धर्व ने कुन्तीनन्दन धनंजय को वह कथा सुनानी प्रारम्भ की, जो तीनों लोकों में विख्यात है। गन्धर्व बोला- समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार ! इस विषय में एक बहुत मनोरम कथा है, जिसे मैं यथार्थ एवं पूर्णरुप से आपको सुनाऊंगा। मैंने जिस कारण अपने वक्तव्य में तुम्हें ‘तापत्य’ कहा है, वह बता रहा हैं, एकाग्रचित्त होकर सुनो। ये जो आकाश में उदित हो अपने तेजोमण्डल के द्वारा यहां से स्वर्गलोक तक व्याप्त हो रहे हैं, इन्हीं भगवान् सूर्यदेव के तपती नाम की एक पुत्री हुई, जो पिता के अनुरुप ही थी। प्रभो ! वह सावित्री देवी की छोटी बहिन थी। वह तपस्या में संलग्न रहने के कारण तीनों लोकों में तपती नाम से विख्यात हुई। उस समय देवता, असुर, यक्ष एवं राक्षस जाति की स्त्री, कोर्इ अप्सरा तथा गन्धर्व पत्नी भी उसके समान रुपवती न थी। उसके शरीर का एक-एक अवयव बहुत सुन्दर, सुविभक्त और निर्दोष था। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी और कजरारी थीं। वह सुन्दरी सदाचार, साधु-स्वभाव और मनोहर वेश से सुशोभित थी। भारत ! भगवान् सूर्य ने तीनों लोकों में किसी भी पुरुष को ऐसा नहीं पाया, जो रुप, शील, गुण और शास्त्रज्ञान की द्दष्टि से उसका पति होने योग्य हो। वह युवास्था को प्राप्त हो गयी। अब उसका किसी के साथ विवाह कर देना आवश्यक था। उसे उस अवस्था में देखकर भगवान् सूर्य इस चिन्ता में पड़े कि इसका विवाह किसके साथ किया जाय। यही सोचकर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। कुन्तीनन्दन ! उन्हीं दिनों महाराज ॠक्ष के पुत्र राजा संवरण कुरुकुल के श्रेष्ठ एवं बलवान् पुरुष थे। उन्होंने भगवान् सूर्य की आराधना प्रारम्भ की। पौरवनन्दन ! वे मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर पवित्र हो अर्ध्य, पुष्प, गन्ध एवं नैवेद्य आदि सामग्रियों से तथा भांति-भांति के नियम, व्रत एवं तपस्याओं द्वारा बड़े भक्तिभाव से उदय होते हुए सूर्य की पूजा करते थे। उनके हृदय में सेवा का भाव था। वे शुद्ध तथा अंहकारशून्य थे। रुप में इस पृथ्वी पर उनके समान दूसरा कोर्इ नहीं था। वे कृतज्ञ और धर्मज्ञ थे। अत: सूर्यदेव ने राजा संवरण को ही तपती के योग्य पति माना। कुरुनन्दन ! उन्होंने नृपश्रेष्ठ संवरण को, जिनका उत्तम कुल सम्पूर्ण विश्व में विख्यात था, अपनी कन्या देने की इच्छा की। जैसे आकाश में उद्दीप्त किरणोंवाले सूर्यदेव अपने तेज से प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर राजा संवरण अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित थे। पार्थ ! जैसे ब्रह्मवादी महर्षि उगते हुए सूर्य की अराधना करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजाएं महाराज संवरण की उपासना करती थीं।
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