महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 1-16
द्विसप्तत्यधिकशततम (172 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
वसिष्ठजी की सहायता से राजा संवरण को तपती की प्राप्ति गन्धर्व कहता है- अर्जुन ! यों कहकर वह अनित्द्य सुन्दरी तपती तत्काल ऊपर (आकाश में) चली गयी और वे राजा संवरण फिर वहीं (मूर्च्छित हो) पृथ्वी पर गिर पड़े । इधर उनके मन्त्री सेना और अनुचरों को साथ लिये उन श्रेष्ठ नरेश को खोजते हुए आ रहे थे। उस महान् वन में पहुंच-कर मन्त्री ने राजा को देखा। वे समय पाकर गिरे हुए ऊंचे इन्द्रध्वज की भांति पृथ्वी पर पड़े थे। तपती से विमुक्त उन महान् धनुर्धर महाराज को इस प्रकार पृथ्वी पर पड़ा देख राजमन्त्री ऐसे व्याकुल हो उठे मानो उनके शरीर में आग लग गयी हो। वे तुरंत उनके पास जा पहुंचे। स्नेहवश उनके हृदय में घबराहट पैदा हो गयी थी। राजमन्त्री अवस्था में तो बड़े-बूढ़े थे ही, बुद्धि, कीर्ति और नीति में बढ़े-चढ़े थे। उन्होंने जैसे पिता अपने गिरे हुए पुत्र को धरती से उठा ले, उसी प्रकार कामवेदना से मूर्च्छित हुए भूमिपालों के भी स्वामी महाराज संवरण को शीघ्रतापूर्वक पृथ्वी पर से उठा लिया। राजा को उठाकर और उन्हें जीवित पाकर उनकी चिन्ता दूर हो गयी । वे उठकर बैठे हुए महाराज से कल्याणमयी मधुर वाणी में बोले- 'नरश्रेष्ठ ! आप डरें नहीं । अनघ ! आपका कल्याण हो'।। युद्ध में शत्रुदल को पृथ्वी पर गिरा देने वाले नरेश को भूमि पर गिरा देख मन्त्री ने यह अनुमान लगाया कि ये भूख-प्यास से पीड़ित एवं थके-मांदे हैं । गिरने पर राजा का मुकुट छिन्न-भिन्न नहीं हुआ था। (इससे अनुमान होता था कि राजा युद्ध में घायल नहीं हुए हैं)। मन्त्री ने राजा के मस्तक को कमल की सुगन्ध से युक्त ठंडे जल से सींचा । उससे राजा को चेत हो आया। बलवान् नरेश ने एकमात्र अपने मन्त्री के सिवा सारी सेना को लौटा दिया । महाराज की आज्ञा से तुरंत वह विशाल सेना राजधानी की ओर चल दी; परंतु वे राजा संवरण फिर उसी पर्वत शिखर पर जा बैठे । तदनन्तर उस श्रेष्ठ पर्वत पर स्नानादि से पवित्र हो भगवान सूर्य की आराधना करने के लिये हाथ जोड़ ऊपर की ओर मुंह किये वे भूमि पर खड़े हो गये। उस समय शत्रुओं का नाश करने वाले राजा संवरण ने अपने पुरोहित मुनिवर वसिष्ठ का मन-ही-मन स्मरण किया। वे रात-दिन एक ही जगह खड़े होकर तपस्या में लगे रहे। तब बारहवें दिन महर्षि वसिष्ठ का (वहां) शुभागमन हुआ। विशुद्ध अन्त:करण वाले महर्षि वसिष्ठ दिव्यज्ञान से पहले बात जान गये कि सूर्य कन्या तपती ने राजा का चित्त चुरा लिया है। इस प्रकार मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर तपस्या में लगे हुए उक्त नरेश से धर्मात्मा मुनिवर वसिष्ठ ने उन्हीं की कार्य-सिद्धि के लिये कुछ बातचीत की ।
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