महाभारत आदि पर्व अध्याय 174 श्लोक 18-36
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चतु:सप्तत्यधिकशततम (174 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
विश्वामित्रजी बोले- मैं क्षत्रिय राजा हूं और आप तपस्या तथा स्वाध्याय साधन करने वाले ब्राह्मण हैं । ब्राह्मण अत्यधिक शान्त और जितात्मा होते हैं। उनमें बल और पराक्रम कहां से आ सकता है; फिर क्या बात है जो आप मेरी अभीष्ट वस्तु को एक अर्बुद गाय लेकर भी नहीं दे रहे हैं। मैं अपना धर्म नहीं छोडूंगा, इस गाय को बलपूर्वक ले जाऊंगा। मैं क्षत्रिय हूं, ब्राह्मण नहीं हूं। मुझे धर्मत: अपना बाहुबल प्रकट करने का अधिकार है; अत: बाहुबल से ही आपके देखते-देखते इस गाय को हर ले जाऊंगा। वसिष्ठजी ने कहा- तुम सेना के साथ हो, राजा हो और अपने बाहुबल का भरोसा रखनेवाले क्षत्रिय हो। जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा शीघ्र कर डालो, विचार न करो। गन्धर्व कहता है- अर्जुन ! वसिष्ठजी के यों कहने पर विश्वामित्र ने मानो बलपूर्वक ही हंस और चन्द्रमा के समान श्वेत रंगवाली उस नन्दिनी गाय का अपहरण कर लिया। उसे कोड़ो और डंडों से मार-मारकर इधर-उधर हांका जा रहा था। अर्जुन ! उस समय कल्याणमयी नन्दिनी डकराती हुई महर्षि वसिष्ठ के सामने आकर खड़ी हो गयी और उन्हीं की ओर मुंह करके देखने लगी। उसके ऊपर जोर-जोर से मार पड़ रही थी, तो भी वह आश्रम से अन्यत्र नहीं गयी । वसिष्ठजी बोले-भद्रे ! तुम बार-बार क्रन्दन कर रही हो। मैं तुम्हारा आर्तनाद सुनता हूं, परंतु क्या करुं? कल्याणमयी नन्दिनी ! विश्वामित्र तुम्हें बलपूर्वक हर ले जा रहे हैं। इसमें मैं क्या कर सकता हूं। मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूं। गन्धर्व कहता है- भरतवंशशिरोमणे ! नन्दिनी विश्वामित्र के भय से उद्विग्न हो उठी थी। वह उनके सैनिको के भय से मुनिवर वसिष्ठ की शरण में गयी। गौ ने कहा-भगवन् ! विश्वामित्र के निर्दय सैनिक मुझे कोड़ों और डंडों से पीट रहे हैं। मैं अनाथ की भांति क्रन्दन कर रही हूं। आप क्यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ?। गन्धर्व कहता है- अर्जुन ! नन्दिनी इस प्रकार अपमानित होकर करुण क्रन्दन कर रही थी, तो भी द्दढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले महामुनि वसिष्ठ न तो क्षुब्ध हुए और न धैर्य से ही विचलित हुए । वसिष्ठजी बोले- भद्रे ! क्षत्रियों का बल उनका तेज है और ब्राह्मणों का बल उनकी क्षमा है। चूंकि मुझे क्षमा अपनाये हुए है, अत: तुम्हारी रुचि हो, तो जा सकती हो । नन्दिनी ने कहा-भगवन् ! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ऐसी बात कहते हैं ? ब्रह्मन् ! आपने त्याग न दिया हो, तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता । वसिष्ठजी बोले-कल्याणि ! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं रहो। यह तुम्हारा बछड़ा मजबूत रस्सी से बांधकर बलपूर्वक ले जाया जा रहा है।। गन्धर्व कहता है- अर्जुन ! यही रहो वसिष्ठजी का यह वचन सुनकर नन्दिनी अपने सिर और गर्दन को ऊपर की ओर उठाया। उस समय वह देखने में बड़ी भयानक जान पड़ती थी । क्रोध से उनकी आंखे लाल हो गयी थीं। उसके डकराने की आवाज जोर-जोर से सुनायी देने लगी। उसने विश्वामित्र की उस सेना को चारों ओर खदेड़ना शुरु किया । कोड़ो के अग्रभाग और डंडो से मार मारकर इधर-उधर हांके जाने के कारण उसके नेत्र पहले से ही क्रोध के कारण रक्तधारा हो गये थे। फिर उसने और भी क्रोध धारण किया । क्रोध के कारण उसके शरीर से अपूर्व दीप्ती प्रकट हो रही थी। वह दोपहर के सूर्य की भांति उद्रासित हो उठी। उसने अपनी पूंछ से बांरबार अगार की भारी वर्षा करते हुए पूंछ से ही पह्रवों की सृष्टि की, थनों से द्रविडों और शकों को उत्पन्न किया, योनिदेश से यवनों और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्म दिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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