महाभारत आदि पर्व अध्याय 174 श्लोक 37-45
चतु:सप्तत्यधिकशततम (174 ) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए। उसके पार्श्वभाग से पौण्ड्र, किरात, यवन, सिंहल, बर्बर और खसों की सृष्टि की। इसी प्रकार उस गौने फेन से चिबुक, पुलिन्द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकार के ग्लेच्छों की सृष्टि की। उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के ग्लेच्छोंगणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्छादित थीं। सबने भांति-भांति के आयुध धारण कर रक्खे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। उन्होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया। विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को ग्लेच्छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था। उस समय अस्त्र-शस्त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले । भरतश्रेष्ठ ! क्रोध में भरे हुए होने पर वसिष्ट सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे । इस प्रकार नन्दिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया। विश्वामित्र की वह सेना तीन योजन तक खदेड़ी गयी वह सेना भय से व्याकुल होकर चीखती-चिल्लाती रही; किंतु कोई भी संरक्षक उसे नहीं मिला। यह देखकर विश्वामित्र क्रोध से व्याप्त हो मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ को लक्षित करके पृथिवी और आकाश में बाणों की वर्षा करने लगे; परंतु महामुनि वसिष्ठ ने विश्वामित्र के चलाये हुए भयंकर नाराच, क्षुर और भल्ल नामक बाणों का केवल बांस की छड़ी से निवारण कर दिया। युद्ध में वसिष्ठ मुनि का वह कार्य-कौशल देखकर शत्रुओं को मार गिरानेवाले विश्वामित्र भी पुन: कुपित हो महर्षि वसिष्ठ पर रोषपूर्वक दिव्यास्त्रों की वर्षा करने लगे। उन्होंने ब्रह्माजी के पुत्र महाभाग वसिष्ठ पर आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र, याम्यास्त्र और वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। वे सब अस्त्र प्रलयकाल के सूर्य की प्रचण्ड किरणों के समान सब ओर से आग की लपटें छोड़ते हुए महर्षि पर टूट पड़े; परंतु महातेजस्वी वसिष्ट ने मुसकराते हुए ब्राह्मबल से प्रेरित हुई छड़ी के द्वारा इन सब अस्त्रों को पीछे लौटा दिया। फिर तो वे सभी अस्त्र भस्मीभूत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार उन दिव्यास्त्रों का निवारण करके वसिष्ठजी ने विश्वामित्र से यह बात कही।। वसिष्ठजी बोले-महाराज दुरात्मा गाधिनन्दन ! अब तू परास्त हो चुका है। यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा। मैं तेरे सामने डटकर खड़ा हूं। गन्धर्व कहता है- राजन् ! विश्वामित्र की वह विशाल सेना खदेड़ी जा चुकी थी। वसिष्ठ के द्वारा पूर्वोक्त रुप से ललकारे जाने पर वे लज्जित होकर कुछ भी उत्तर न दे सके।। ब्रह्मतेज का यह अत्यन्त आश्चर्यजनक चमत्कार देखकर विश्वामित्र क्षत्रियत्व से खिन्न एवं उदासीन हो यह बात बोले-क्षत्रिय-बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेजजनित बल ही वास्तविक बल है। इस प्रकार बलाबल का विचार करके उन्होंने तपस्या को ही सर्वोतम बल निश्चित किया और अपने समृद्धिशाली राज्य तथा देदीप्यमान राज्यलक्ष्मी को छोड़कर, भोगों को पीछे करके तपस्या में ही मन लगाया। इस तपस्या से सिद्धि को प्राप्त हो उद्दीस तेजवाले विश्वामित्र ने अपने प्रभाव से सम्पूर्ण लोकों-को स्तब्ध एवं संतप्त कर दिया और (अन्ततोगत्वा) ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया; फिर वे इन्द्र के साथ सोमपान करने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तगर्त चैत्ररथपर्व में वसिष्ठजी के प्रसंग में विश्वामित्रविषयक एक सौ चौहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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