महाभारत आदि पर्व अध्याय 205 श्लोक 1-21

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पञ्चाधिकद्विशततम (205) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: पञ्चाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्‍ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के यहां आना और पाण्‍डवों को हस्तिनापुर भेजने का प्रस्‍ताव करना

धृतराष्‍ट्र बोले-विदुर ! शंतनुनन्‍दन भीष्‍म ज्ञानी हैं और भगवान् द्रोणाचार्य तो ॠषि ही ठहरे। अत: इनका वचन परम हितकारक है। तुम भी मुझसे जो कुछ कहते हो, वह सत्‍य ही है। कुन्‍ती के वीर महारथी पुत्र जैसे पाण्‍डु के लड़के हैं, उसी प्रकार धर्म की दृष्टि से वे सब मेरे भी पुत्र हैं- इसमें संशय नहीं है। जैसे मेरे पुत्रों का यह राज्‍य कहा जाता है, उसी प्रकार पाण्‍डुपुत्रों का भी यह राज्‍य है- इसमें भी संशय नही है। भरतवंशी विदुर ! अब तुम्‍हीं जाओ और उनकी माता कुन्‍ती तथा उस देवरुपिणी वधू कृष्‍णा के साथ इन पाण्‍डवों को सत्‍कारपूर्वक ले आओ। सौभाग्‍य की बात है कि कुन्‍तीपुत्र जीवित है। सौभाग्‍य से ही कुन्‍ती भी जीवित है और यह भी बड़े सौभाग्‍य की बात है कि उन महारथियों ने द्रुपद कन्‍या को प्राप्‍त कर लिया। महाद्युते ! सौभाग्‍य से हम सबकी वृद्धि हो रही है। भाग्‍य की बात है कि पापी पुरोचन शान्‍त हो गया और सौभाग्‍य से ही मेरा महान् दु:ख मिट गया । वैशम्‍पयानजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर धृतराष्‍ट्र की आज्ञा से विदुरजी द्रौपदी, पाण्‍डव तथा महाराज यज्ञसेन के लिये नाना प्रकार के धन-रत्‍नों की भेंट लेकर राजा द्रुपद और पाण्‍डवों के समीप गये।राजन् ! वहां पहुंचकर सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के विद्वान एवं धर्मज्ञ विदुर न्‍याय के अनुसार बड़े-छोटे के क्रम से द्रुपद और अन्‍य लोगों के साथ ह्रदय से लगाकर नमस्‍कार आदि पूर्वक मिले। राजा द्रुपद ने भी धर्म के अनुसार विदुरजी का आदर सत्‍कार किया। फिर वे दोनों यथोचित रीति से एक-दूसरे के कुशल-समाचार पूछने और कहने लगे। भारत ! विदुरजी ने वहां पाण्‍डवों तथा वसुदेव नन्‍दन भगवान् श्रीकृष्‍ण को भी देखा और स्‍नेहपूर्वक उन्‍हें ह्रदय से लगाकर उन सबकी कुशल पूछी। उन्‍होंने भी अमित-बुद्धिमान् विदुरजी का क्रमश: आदर सत्‍कार किया। तदनन्‍तर विदुरजी ने राजा धृतराष्‍ट्र की आज्ञा के अनुसार बारंबार स्‍नेहपूर्वक युधिष्ठिर आदि पाण्‍डुपुत्रों से कुशल मंगल एवं स्‍वास्‍थ्‍य विषयक प्रश्‍न किया। जनमेजय ! फिर विदुरजी ने कौरवों की ओर से जैसे दिये गये थे, उसी के अनुसार पाण्‍डवों, कुन्‍ती, द्रौपदी तथा द्रुपद के पुत्रों के लिये नाना प्रकार के रत्‍न और धन भेंट किये। अगाध बुद्धिवाले विदुरजी पाण्‍डवों तथा भगवान् श्रीकृष्‍ण के समीप विनीतभाव से नम्रतापूर्वक बोले- विदुर ने कहा- राजन् ! आप अपने मन्त्रियों और पुत्रों के साथ मेरी बात सुनें। महाराज धृतराष्‍ट्र ने अपने पुत्र, मन्‍त्री और बन्‍धुओं के साथ अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर बारंबार आपकी कुशल पूछी है। महाराज ! आपके साथ यह जो सम्‍बन्‍ध हुआ है, इससे उनको बड़ी प्रसन्‍नता हुई है। इसी प्रकार शंतनुनन्‍दन महाप्राज्ञ भीष्‍मजी भी समस्‍त कौरवों के साथ सब तरह से आपकी कुशल पूछते हैं। आपके प्रिय मित्र महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य भी (मन-ही-मन) आपको हृदय से लगाकर कुशल पूछ रहे हैं। पाञ्चाल नरेश ! राजा धृतराष्‍ट्र आपके सम्‍बन्‍धी होकर अपने आपको कृतार्थ मानते हैं। यही दशा समस्‍त कौरवों की है। यज्ञसेन ! उन्‍हें राज्‍य की प्राप्ति भी उतनी प्रसन्‍नता देने वाली नहीं जान पड़ी, जितनी प्रसन्‍नता आपके साथ सम्‍बन्‍ध का सौभाग्‍य पाकर हुई है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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