महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 1-11
षडधिकद्विशततम (206) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
पाण्डवों का हस्तिनापुर में आना और आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण करना एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी का द्वारका के लिये प्रस्थान
द्रुपद बोले- महाप्राज्ञ विदुरजी ! आज आपने जो मुझसे कहा है, सब ठीक है। प्रभो ! (कौरवों के साथ) यह सम्बन्ध हो जाने से मुझे भी महान् हर्ष हुआ है। महात्मा पाण्डवों का अपने नगर में जाना भी अत्यन्त उचित ही है। तथापि मेरे लिये अपने मुख से इन्हें जाने के लिये कहना उचित नहीं है। यदि कुन्तीकुमार वीरवर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन और नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव जाना उचित समझें तथा धर्मज्ञ बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवों को वहां जाना उचित समझते हों तो ये अवश्य वहां जायं; क्योंकि ये दोनों पुरुषसिंह सदा इनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं । युधिष्ठिर ने कहा- राजन् ! हम सब लोग अपने सेवकों सहित सदा आपके अधीन हैं। आप स्वयं प्रसन्नता पूर्वक हमसे जैसा कहेंगे, वही हम करेंगे । वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण ने कहा- ‘मुझे तो इनका जाना ही ठीक जान पड़ता है। अथवा सब धर्मों के ज्ञाता महाराज द्रुपद जैसा उचित समझें, वैसा किया जाय ’। द्रुपद बोले- दशार्हकुल के रत्न वीरवर पुरुषोत्तम महाबाहु श्रीकृष्ण इस समय जो कर्तव्य उचित समझते हों, निश्चय ही मेरी भी वहीं सम्मति है। महाभाग कुन्ती पुत्र इस समय मेरे लिये जैसे अपने हैं, उसी प्रकार इन भगवान् वासुदेव के लिये भी समस्त पाण्डव उतने ही प्रिय एंव आत्मीय हैं-इसमें संशय नहीं है । पुरुषोत्तम केशव जिस प्रकार इन पाण्डवों के श्रेय (अत्यन्त हित) का ध्यान रखते हैं, उतना ध्यान कुन्तीनन्दन पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर भी नहीं रखते। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उसी प्रकार महातेजस्वी विदुर कुन्ती के भवन में गये। वहां उन्होंने धरती पर माथा टेककर चरणों में प्रणाम किया। विदुर को आया देख कुन्ती बार-बार शोक करने लगी।। कुन्ती बोली- विदुरजी ! आपके पुत्र पाण्डव किसी प्रकार आपके ही कृपा प्रसाद से जीवित हैं। लाक्षा गृह में आपने इन सबके प्राण बचाये हैं और अब यह पुन: आपके समीप जीते-जागते लौट आये हैं। कछुआ अपने पुत्रों का, वे कहीं भी क्यों न हो, मन से चिन्तन करता रहता है। इस चिन्ता से ही अपने पुत्रों का वह पालन पोषण एवं संवर्धन करता है।उसी के अनुसार जैसे वे सकुशल जीवित रहते हैं, वैसे ही आपके पुत्र पाण्डव (आपकी ही मंगल-कामना से) जी रहे हैं ! भरतश्रेष्ठ ! आप ही इनके रक्षक हैं। तात ! जैसे कोयल के पुत्रों का पालन पोषण सदा कौए की माता करती है, उसी प्रकार आपके पुत्रों की रक्षा मैंने ही की है। अब तक मैंने बहुत से प्राणान्तक कष्ठ उठाये हैं; इसके बाद मेरा क्या कर्तव्य है, यह मैं नही जानती। यह सब आप ही जानें ! वैशम्पायनजी कहते हैं- यों कहकर दु:ख से पीड़ित हुई कुन्ती अत्यन्त आतुर होकर शोक करने लगी। उस समय विदुर ने उन्हें प्रणाम करके कहा, तुम शोक न करो। विदुर बोले- यदुकुलनन्दिनी ! तुम्हारे महाबली पुत्र संसार में (दूसरों के सताने से) नष्ट नहीं हो सकते। अब वे थोड़े ही दिनों में समस्त बन्धुओं के साथ अपने राज्य पर अधिकार करनेवाले हैं। अत: तुम शोक मत करो। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर महात्मा द्रुपद की आज्ञा पाकर पाण्डव, श्रीकृष्ण और विदुर द्रुपद कुमारी कृष्णा और यशस्विनी कुन्ती को साथ ले आमोद-प्रमोद करते हुए हस्तिनापुर की ओर चले।
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