महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 12-19

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षडधिकद्विशततम (206) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: षडधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 12-19 का हिन्दी अनुवाद


उस समय राजा द्रुपद ने उन्‍हें एक हजार सुन्‍दर हाथी प्रदान किये, जिनकी पीठों पर सोने के हौदे कसे हुए थे और गले में सोने के आभूषण शोभा पा रहे थे। उनके अंकुश भी सोने के ही थे। जाम्‍बूनद नामक सुवर्ण से उन सबको सजाया गया था। उनके मण्‍डस्‍थल से मद की धारा बह रही थी। बड़े-बड़े महावत उन सबका संचालन करते थे। वे सभी गजराज सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-शस्‍त्रों से सम्‍पन्‍न थे। राजा ने पांचों पाण्‍डवों के लिये चार घोडों से जुते हुए एक हजार रथ दिये, जो सुवर्ण और मणियों से विभूषित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करते थे और सब ओर अपनी प्रभा बिखेर रहे थे। इतना ही नहीं, राजा ने अच्‍छी जाति के पचास हजार घोड़े भी दिये, जो सुनहरे साज-बाज से सुसज्जित और सुन्‍दर चंबर तथा मालाओं से अलंकृत थे। इनके सिवा सुन्‍दर आभूषणों से विभूषित दस हजार दासियां भी दीं। साथ ही उत्‍तम धनुष धारण करने वाले एक हजार दास पाण्‍डवों को भेंट किये। बहुत-सी शय्‍याएं, आसन और पात्र भी दिये जो सब-के-सब सुवर्ण के बने हुए थे। दूसरे दूसरे द्रव्‍य और गोधन भी समर्पित किये। इन सबकी पृथक-पृथक संख्‍या एक-एक करोड़ थी। इस प्रकार पाञ्चालराज द्रुपद ने बड़े हर्ष और उल्‍लास के साथ पाण्‍डवों को उपर्युक्‍त वस्‍तुएं अर्पित कीं। सौ पालकियां और उनको ढोने वाले पांच सौ कहार दिये। इस प्रकार पाञ्चालराज ने अपनी कन्‍या के लिये ये सभी वस्‍तुएं तथा बहुत-सा धन दहेज में दिया। जनमेजय ! धृष्‍टधुम्न स्‍वयं अपनी बहिन का हाथ पकड़कर सवारी पर बैठाने के लिये ले गये। उस समय सहस्‍त्रों प्रकार के बाजे एक साथ बज उठे। राजा धृतराष्‍ट्र ने पाण्‍डव वीरों का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये कौरवों को भेजा। भारत ! विकर्ण, महान् धनुर्धर चित्रसेन, विशाल धनुष वाले द्रोणाचार्य, गौतमवंशी कृपाचार्य आदि भेजे गये थे। इन सबसे से घिरे हुए शोभाशाली महाबली वीर पाण्‍डवों ने तब धीरे-धीरे हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। पाण्‍डवों का आगमन सुनकर नागरिकों ने कौतूहलवश हस्तिनापुर नगर को (अच्‍छी तरह से) सजा रखा था। सड़कों पर सब ओर फूल बिखेरे गये थे, जल का छिड़काव किया गया था, सारा नगर दिव्‍य धूप की सुगन्‍ध से महं-महं कर रहा था और भांति-भांति की प्रसाधन-सामग्रि‍यों से सजाया गया था। पताकाएं फहराती थीं और ऊंचे गृहों में पुष्‍पहार सुशोभित होते थे। शंक्‍ख, भेरी तथा नाना प्रकार के वाद्यों की ध्‍वनि से वह अनुपम नगर बड़ी शोभा पा रहा था। उस समय कौतूहलवश सारा नगर देदीप्‍यमान सा हो उठा। पुरुषसिंह पाण्‍डव प्रजाजनों के शोक और दु:ख का निवारण करनेवाले थे; अत: वहां उनका प्रिय करने की इच्‍छा वाले पुरवासियों द्वारा कही हुई भिन्‍न-भि‍न्‍न प्रकार की हृदय-स्‍पर्शिनी बातें सुनायी पड़ीं। (पुरवासी कह रहे थे-) ‘ये ही वे नरश्रेष्‍ठ धर्मज्ञ युधिष्ठिर पुन: यहां पधार रहे हैं, जो धर्मपूर्वक अपने पुत्रों की भांति हम लोगों की रक्षा करते थे। इनके आने से नि:संदेह ऐसा जान पड़ता है, आज प्रजाजनों के प्रिय महाराज पाण्‍डु ही मानो हमारा प्रिय करने के लिये वन से चले आये हों। तात ! कुन्‍ती के वीर पुत्र पुन: इस नगर में चले आये तो आज हम सब लोगों का कौन-सा परम प्रिय कार्य नहीं सम्‍पन्‍न हो गया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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