महाभारत आदि पर्व अध्याय 207 श्लोक 10-11
सप्ताधिकद्विशततम (207) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
उनका आगमन आकाश मार्ग से हुआ, जिसका नक्षत्र सेवन करते हैं, जिस पर गरुड़ चलते हैं, जहां चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश फैलता है और जो महर्षियों से सेवित है। जो लोग तपस्वी नहीं हैं, उनके लिये व्योम मण्डल का वह दिव्य मार्ग दुर्लभ है।। सम्पूर्ण प्राणियों द्वारा पूजित महान् तपस्वी एवं तेजस्वी देवर्षि नारद बड़े-बड़े नगरों से विभूषित और सम्पूर्ण प्राणियों के आश्रयभूत राष्ट्रों का अवलोकन करते हुए वहां आये। विप्रवर नारद सम्पूर्ण वेदान्त शास्त्र के ज्ञाता तथा समस्त विद्याओं के पारंगत पण्डित हैं। वे परम तपस्वी तथा ब्रह्मतेज से सम्पन्न हैं; न्यायोचित बर्ताव तथा नीति में निरन्तर निरत रहनेवाले सुविख्यात महामुनि हैं।।उन्होंने धर्म-बल से परात्पर परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वे शुद्धात्मा, रजोगुणरहित, शान्त, मृदु तथा सरल स्वभाव के ब्राह्मण हैं। वे देवता, दानव और मनुष्य सब को धर्मत: प्राप्त होते हैं। उनका धर्म और सदाचार कभी खण्डित नहीं हुआ है। वे संसार भय से सर्वथा रहित हैं। उन्होंने सब प्रकार से विविध वैदिक धर्मों की मर्यादा स्थापित की है। वे ॠग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद के विद्वान हैं। न्यायशास्त्र के पारंगत पण्डित हैं। वे सीधे और ऊंचे कद के तथा शुक्ल वर्ण के हैं। वे निष्पाप नारद अधिकांश समय यात्रा में व्यतीत करते हैं। उनके मस्तक पर सुन्दर शिखा शोभित है। वे उत्तम कान्ति से प्रकाशित होते हैं। वे देवराज इन्द्र के दिये हुए दो बहुमुल्य वस्त्र धारण करते हैं। उनके वे दोनों वस्त्र उज्जवल, महीन, दिव्य, सुन्दर और शुभ हैं। दूसरों के लिये दुर्लभ एवं उत्तम ब्रह्मतेज से युक्त वे बृहस्पति के समान बुद्धिमान् नारदजी राजा युधिष्ठिर के महल में उतरे। संहिता शास्त्र में सबके लिये स्थित और उपस्थित मानवधर्म तथा क्रमप्राप्त धर्म के वे पारगामी विद्वान हैं। वे गाथा और साममन्त्रों में कहे हुए आनुषंगिक धर्मों के भी ज्ञाता हैं तथा अत्यन्त मधुर सामगान के पण्डित हैं। मुक्ति की इच्छा रखनेवाले सब लोगों के हित के लिये नारदजी स्वयं ही प्रयत्नशील रहते हैं। कब किसका क्या कर्तव्य है, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान है। वे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं और मन को नाना प्रकार के धर्म में लगाये रखते हैं। उन्हें जानने योग्य सभी अर्थों का ज्ञान है। वे सबमें समभाव रखनेवाले हैं और वेद विषयक सम्पूर्ण संदेहों का निवारण करनेवाले हैं। अर्थ की व्याख्या के समय सदा संशयों का उच्छेद करते हैं। उनके हृदय में संशय का लेश भी नहीं है। वे स्वभावत: धर्म निपुण तथा नाना धर्मों के विशेषज्ञ हैं। लोप, आगमधर्म तथा वृति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आये हुए एक शब्द के अनेक अर्थों को, पृथक-पृथक श्रवण गोचर होनेवाले अनेक शब्दों के एक अर्थ को तथा विभिन्न शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थों को वे पूर्ण रुप से देखते और समझते हैं।। सभी अधिकरणों और समस्त वर्णों के विकारों में निर्णय देने के निमित्त वे सब लोगों के लिये प्रमाणभूत हैं। सदा सब लोग उनकी पूजा करते हैं। नाना प्रकार के स्वर, व्यञ्जन, भांति-भांति के छन्द, समान स्थानवाले सभी वर्ण, समाम्राय तथा धातु-इन सबके उद्देश्यों की नारदजी बहुत अच्छी व्याख्या करते हैं। सम्पूर्ण आख्यात प्रकरण (धातुरुप तिड़न्त आदि) का प्रतिपादन कर सकते हैं। सब प्रकार की संधियों के सम्पूर्ण रहस्यों को जानते हैं। पदों और अंगों का निरन्तर स्मरण रखते हैं, काल धर्म से निर्दिष्ट यथार्थ तत्व का विचार करनेवाले हैं तथा वे लोगों के छिपे हुए मनोभाव को- वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी अच्छी तरह जानते हैं। विभाषित (वैकल्पिक), भाषित (निश्चयपूर्वक कथित) और हृदयगंम किये हुए समय का उन्हें यथार्थ ज्ञान है। वे अपने तथा दूसरे के लिये स्वरसंस्कार तथा योगसाधन में तत्पर रहते हैं। वे इन प्रत्यक्ष चलने वाले स्वरों को भी जानते हैं, वचन-स्वरों का भी ज्ञान रखते हैं, कही हुई बातों के मर्म को जानते और उनकी एकता तथा अनेकता को समझते हैं। उन्हें परमार्थ का यर्थाथ ज्ञान है। वे नाना प्रकार के व्यतिक्रमों (अपराधों) को भी जानते हैं। अभेद और भेद दृष्टि से भी बारंबार तत्वविचार करते रहते हैं; वे शास्त्रीय वाक्यों के विविध आदेशों की भी समीक्षा करनेवाले तथा नाना प्रकार के अर्थज्ञान में कुशल हैं, तद्धित प्रत्ययों का उन्हें पूरा ज्ञान है। वे स्वर, वर्ण और अर्थ तीनों से ही वाणी को विभूषित करते हैं। प्रत्येक धातु के प्रत्ययों का नियमपूर्वक प्रतिपादन करनेवाले हैं। पांच प्रकार के जो अक्षरसमूह तथा स्वर हैं *, उनको भी वे यथार्थ रुप से जानते हैं।। उन्हें आया देख राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया और अपना परम सुन्दर आसन उन्हें बैठने के लिये दिया। जब देवर्षि उस पर बैठ गये, तब परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उन्हें अर्ध्य निवदेन किया और उसी के साथ-साथ उन्हें अपना सारा राज्य समर्पित कर दिया। उनकी यह पूजा ग्रहण करके देवर्षि उस समय मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए ।
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