महाभारत आदि पर्व अध्याय 211 श्लोक 1-17
एकादशाधिकद्विशततम (211) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
तिलोत्तमा पर मोहित होकर सुन्द-उपसुन्द का आपस में लड़ना और मारा जाना एवं तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वर प्राप्ति तथा पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! वे दोनों दैत्य सुन्द और उपसुन्द सारी पृथ्वी को जीतकर शत्रुओं से रहित एवं व्यथा रहित हो तीनों लोकों को पूर्णत: अपने वश में करके कृतकृत्य हो गये । देवता, गन्धर्व,यक्ष, नाग, मनुष्य तथा राक्षसों के सभी रत्नों को छीनकर उन दोनों दैत्यों को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ ।तब त्रिलोकी में उनका सामना करनेवाले कोई नहीं रह गये, तब वे देवताओं के सामन अकर्मण्य होकर भोग-विलास में लग गये। सुन्दरी स्त्रियों, मनोहर मालाओं, भांति-भांति के सुगन्ध द्रव्यों, पर्याप्त भोजन-सामग्रीयों तथा मन को प्रिय लगनेवाले अनेक प्रकार के पेय रसो का सेवन करके वे बड़े आनन्द से दिन बिताने लगे। अन्त:पुर के उपवन और उद्यान में, पर्वतों पर, वनों में तथा अन्य मनोवाच्छित प्रदेशों में भी वे देवताओं की भांति विहार करने लगे। तदनन्तर एक दिन विन्ध्यपर्वत के शिखर पर जहां की शिलामयी भूमि समतल थी और जहां ऊंचे शाल वृक्षों की शाखाएं फूलों से भरी हुई थीं, वहां वे दोनों दैत्य विहार करने के लिये गये ।वहां उनके लिये सम्पूर्ण दिव्य भोग प्रस्तुत किये गये, तदनन्तर वे दोनों भाई श्रेष्ठ आसनों पर सुन्दरी स्त्रियों के साथ आनन्दमय होकर बैठे। तदनन्तर बहुत-सी स्त्रियां उनके पास आयी और वाद्य, नृत्य, गीत एवं स्तुति-प्रशंसा आदि के द्वारा उन दोनो का मनोरंजन करने लगीं । इसी समय तिलोत्तमा वहां वन में फूल-चुनती हुई आयी। उसके शरीर पर एक ही लाल रंग की महीन साड़ी थी। उसने ऐसा वेश धारण कर रखा था, जो किसी भी पुरुष को उन्मत्त बना सकता था । नदी के किनारे उगे हुए कनेर के फूलों का संग्रह करती हुई वह धीरे-धीरे उसी स्थान को ओर गयी, जहां वे दोनों महादैत्य बैठे थे। उन दोनों ने बहुत अच्छा मादक रस पी लिया था, जिससे उनके नेत्र नशे के कारण कुछ लाल हो गये थे। उस सुन्दर अंगोवाली तिलोत्तमा को देखते ही वे दोनों दैत्य कामवेदना से व्यथित हो उठे। और अपना आसन छोड़कर खड़े हो उसी स्थान पर गये, जहां वह खड़ी थी। दोनों ही काम से उन्मत्त हो रहे थे, इसलिये दोनों ही उसे अपनी स्त्री बनाने के लिये उससे प्रेम की याचना करने लगे। सुन्द ने सुन्दर भौहोंवाली तिलोत्तमा का दाहिना हाथ पकड़ा और उपसुन्द ने उसका बायां हाथ पकड़ लिया। एक तो वे दुर्लभ वरदान के मद से उन्मत्त थे, दूसरे उन पर स्वाभाविक बल का नशा सवार था। इसके सिवा धनमद, रत्नमद और सुरापान के मद से भी वे उन्मत्त हो रहे थे। इन सभी मदों से उन्मत्त होने के कारण आपस में ही एक दूसरे पर उनकी भौंहे तन गयीं। तिलोत्तमा कटाक्ष द्वारा उन दोनों दैत्य राजों को बार-बार अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। उस कामिनी ने अपने दाहिने कटाक्ष से सुन्द को आकृष्ट कर लिया और बायें कटाक्ष से वह उपसुन्द को वश में करने की चेष्टा करने लगी। उसकी दिव्य सुगन्ध, आभूषण राशि तथा रुप सम्पत्ति वे दोनों दैत्य तत्काल मोहित हो गये। उनमें मद और काम का आवेश हो गया। अत: वे एक-दूसरे से इस प्रकार बोले। सुन्द ने कहा- ‘अरे ! यह मेरी पत्नी हैं, तुम्हारे लिये माता के समान हैं।‘ यह सुनकर उपसुन्द बोल उठा-‘नहीं-नहीं, यह मेरी भार्या हैं, तुम्हारे लिये तो पुत्रवधु के समान है’। ‘यह तुम्हारी नहीं है, मेरी है’, यही कहते-कहते उन दोनों को क्रोध चढ़ गया। तिलोत्तमा के रुप से मतवाले होकर वे दोनों स्नेह और सौहार्द से शून्य हो गये।
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