महाभारत आदि पर्व अध्याय 211 श्लोक 18-32
एकादशाधिकद्विशततम (211) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
उस सुन्दरी को पाने के लिये दोनों भाइयों ने उस समय हाथ में भयंकर गदाएं ले लीं। दोनों ही उसके प्रति काम से मोहित हो रहे थे। ‘पहले मैं इस प्राप्त करुगा’, नही, पहले मैं’; ऐसा कहते हुए दोनों एक-दूसरे को मारने लगे। इस प्रकार गदाओं की चोट खाकर वे दोनों भयानक दैत्य धरती पर गिर पड़े। उनके सारे अंग खून से लथ-पथ हो रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश से दो सूर्य पृथ्वी पर गिर गयें हो।उनके मारे जाने पर वे सब स्त्रियां वहां से भाग गयीं और दैत्यों का सारा समुदाय विषाद और भय से कम्पित होकर पाताल में चला गया। तत्पश्चात् विशुद्ध अन्त:करण वाले भगवान् ब्रह्माजी देवताओं और महर्षियों के साथ तिलोत्तमा की प्रशंसा करते हुए वहां आये और भगवान् पितामह ने उसे वर के द्वारा प्रसन्न किया। वर देने के लिये उत्सुक हुए ब्रह्माजी स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक बोले-‘भामिनी ! जहां तक सूर्य की गति है, उन सभी लोकों में तू इच्छानुसार विचर सकेगी। तुझमें इतना तेज होगा कि कोई आंख भरकर तुझे अच्छी तरह देख भी न सकेगा।‘ इस प्रकार सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी तिलोत्तमा को वरदान देकर तथा त्रिलोकी की रक्षा का भार इन्द्र को सौंपकर पुन: ब्रह्मलोक को चले गये। नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! इस प्रकार सुन्द और उपसुन्द ने परस्पर संगठित और सभी बातों में एकमत रहकर भी तिलोत्तमा के लिये कुपित हो एक-दूसरे को मार डाला। अत: भरतवंशशिरोमणियों ! मैं तुम सब लोगों से स्नेहवश कहता हूं कि यदि मेरा प्रिय चाहते हो, तो ऐसा कुछ नियम बना लो, जिससे द्रौपदी के लिये तुम सब लोगों में फूट न होने पावे। तुम्हारा कल्याण हो। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर एक दूसरे के अधीन रहनेवाले उन अमित तेजस्वी महात्मा पाण्डवों ने देवर्षि के सामने ही यह नियम बनाया। ‘हममें से प्रत्येक घर में पापरहित द्रौपदी एक-एक वर्ष निवास करें। द्रौपदी के साथ एकान्त में बैठे हुए हमसें से एक भाई को यदि दूसरा देख ले, तो वह बारह वर्षो तक ब्रह्मचर्यपूर्वक वन में निवास करे,। धर्म का आचरण करनेवाली पाण्डवों द्वारा यह नियम स्वीकार कर लिये जाने पर महामुनि नारदजी प्रसन्न हो अभीष्ट स्थान को चले गये। भारत ! इस प्रकार नारदजी का प्रेरणा से पाण्डवों ने पहले ही नियम बना लिया था। इसीलिये वे सब आपस में कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं हुए। नरेश्वर जनमेजय ! उस समय जो बातें जिस प्रकार घटित हुई थीं, वे सब मैंने तुम्हें विस्तारपूर्वक बतायी है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत विदुरागमन विषयक पर्व में सुन्दोपसुन्दोपाख्यान विषयक दौ सौ ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ।
« पीछे | आगे » |