महाभारत आदि पर्व अध्याय 215 श्लोक 1-19

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पञ्चदशाधिकद्विशततम (215) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: पञ्चदशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के द्वारा वर्गा अप्‍सरा का ग्राहयोनि से उद्धार तथा वर्गा की आत्‍मकथा का आरम्‍भ

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ ! तदनन्‍तर अर्जुन दक्षिण समुद्र के तट पर तपस्‍वी जनों से सुशोभित परम पुण्‍यमय तीर्थों में गये। वहां उन दिनों तपस्‍वी लोग पांच तीर्थों में गये। वहां उन दिनों तपस्‍वी लोग पांच तीर्थों को छोड़ देते थे। ये वे ही तीर्थ थे, जहां पूर्वकाल में बहुतेरे तपस्‍वी महात्‍मा भरे रहते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं-अगस्‍त्‍यतीर्थ, सौभद्रतीर्थ, परम पावन पौलोतीर्थ, अश्‍वमेघ का फल देनेवाला स्‍वच्‍छ कारन्‍धमतीर्थ तथा पापनाशक महान् भारद्वाज तीर्थ ! कुरुश्रेष्‍ठ अर्जुन ने इन पांचों तीर्थों का दर्शन किया। पाण्‍डुपुत्र अर्जुन ने देखा, ये सभी तीर्थ बड़े एकान्‍त में हैं, तो भी एकमात्र धर्म में बुद्धि को लगाये रखनेवाले मुनि भी उन तीर्थ को दूर से ही छोड़ दे रहे है। तब कुरुनन्‍दन धनंजय ने दोनों हाथ जोड़कर तपस्‍वी मुनियों से पूछा-‘वेदवक्‍ता ॠषिगण इन तीर्थों का परित्‍याग किसलिये कर रहे हैं ? तपस्‍वी बोले-कुरुनन्‍दन ! उन तीर्थों में पांच घड़ियाल रहते हैं, जो नहानेवाले तपोधन ॠषियों को जल के भीतर खींच ले जाते हैं; इसीलिये ये तीर्थ मुनियों द्वारा त्‍याग दिये गये हैं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- उनकी बातें सुनकर कुरुश्रेष्‍ठ महाबाहु अर्जुन उन तपोधनों के मना करने पर भी उन तीर्थों का दर्शन करने के लिये लिये गये। तदनन्‍तर परंतप शूरवीर अर्जुन महर्षि सुभद्र के उत्‍तम सौभद्रती तीर्थ में सहसा उतरकर स्‍नान करने लगे। इतने में ही जल के भीतर विचरने वाले एक महान् ग्राह ने नरश्रेष्‍ठ कुन्‍तीकुमार धनजंय को एक पैर पकड़ लिया। परंतु बलवानों में श्रेष्‍ठ महाबाहु कुन्‍तीकुमार बहुत उछल कूद मचाते हुए उस जलचर जीव को लिये दिये पानी से बाहर निकल आये।यशस्‍वी अर्जुन द्वारा पानी के ऊपर खिंच आने पर वह ग्राह समस्‍त आभूषणों से विभूषित एक परम सुन्‍दरी नारी के रुप में परिणत हो गया। राजन् ! वह दिव्‍यरुपिणी मनोरमा रमणी अपनी अद्रुत कान्ति से प्रकाशित हो रही थी। वह महान् आश्‍चर्य की बात देखकर कुन्‍तीनन्‍दन धनंजय बड़े प्रसन्‍न हुए और उस स्‍त्री से इस प्रकार बोले-‘कल्‍याणी ! तुम कौन हो और कैसे जलचर योनि को प्राप्‍त हुई थी ? तुमने पूर्वकाल में ऐसा महान् पाप किसलिये किया ? जिससे तुम्‍हारी दुर्गती हुई ? वर्गा बोली-महाबाहो ! मैं नन्‍दन वन में विहार करनेवाली एक अप्‍सरा हू। महाबल ! मेरा नाम वर्गा है। मैं कुबेर की नित्‍यप्रेयसी रही हूं। मेरी चार दूसरी सखियां भी हैं। वे सब इच्‍छानुसार गमन करनेवाली और सुन्‍दरी हैं। उन सबके साथ एक दिन मैं लोकपाल कुबेर के घर पर जा रही थी। मार्ग में हम सबने उत्‍तम व्रत का पालन करनेवाले एक ब्राह्मण को देखा। वे बड़े रुपवान् थे और अकेले एकान्‍त में रहकर वेदों का स्‍वाध्‍याय करते थे। राजन् ! उन्‍हीं की तपस्‍या से वह सारा वन प्रान्‍त तेजोमय हो रहा था। वे सूर्य की भांति उस सम्‍पूर्ण प्रदेश को प्रकाशित कर रहे थे। उनकी वैसी तपस्‍या और वह अद्रुत एवं उत्‍तम रुप देखकर हम सभी अप्‍सराएं उनके तप में डालने की इच्‍छा से उस स्‍थान में उतर पड़ी।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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