महाभारत आदि पर्व अध्याय 216 श्लोक 18-35

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षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

‘वहाँ पुरूषों में श्रेष्ठ शुद्धात्मा पाण्डुकुमार धनंजय शीघ्र ही पहुँचकर तुम्हें इस दुःख से छुडायेंगे, इसमें संशय नहीं है।’ वीर अर्जुन ! नारदजी का वचन सुनकर हम सब सखियाँ यहीं चली आयी । अनघ ! आज सचमुच ही आपने मुझे इस शाप से मुक्त कर दिया। ये मेरी चार सखियाँ और हैं, जो अभी जल में पडी हैं। वीरवर ! आप यह पुण्य कर्म कीजिये; इन सबको शाप से छुड़ा दीजिये ।।२०।। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तय उद्धार-हृदय पराक्रमी पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन ने उन सभी अप्सराओं को उस शाप से मुक्त कर दिया। राजन् ! उस जल से ऊपर निकलकर फिर अपना पूर्वस्वरूप् प्राप्त कर लेने पर वे अप्सराएँ उस समय पहले की भाँति दिखायी देने लगी। इस प्रकार उन तीर्थों का शोधन करके उन अप्सराओं को जाने की आज्ञा दे शक्तिशाली अर्जुन चित्रांगदा से मिलने के लिये पुनः मणिपूर गये। वहाँ उन्होनें चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न किया था, उसका नाम वभ्रुवाहन रक्खा गया था। राजन् ! अपने उस पुत्र को देखकर पाण्डुपत्र अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा -। ‘महाराज ! इस वभ्रुवाहन को आप चित्रांगदा के शुल्करूप में ग्रहण कीजिये, इससे मैं आपके ऋण से मुक्त हो जाऊँगा’। तत्पश्चात् पाण्डुकुमार ने पुनः चित्रांगदा से कहा - प्रिये ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम यहीं रहो और वभ्रुवाहन का पालन-पोषण करो।
‘फिर यथासमय हमारे निवासस्थान इन्द्रप्रस्थ में आकर तुम बड़े सुख से रहोगी। वहाँ आने पर माता कुन्ती, युधिष्ठिर, भीमसेन, मेरे छोटे भाई नकुल-सहदेव तथा अन्य बन्धु-बान्धवों को देखने का तुम्हें अवसर मिलेगा। अनिन्दिते ! इन्द्रप्रस्थ में मेरे समस्त बन्धु-बान्धवों से मिलकर तुम प्रसन्न होओगी। ‘सदा धर्म पर स्थित रहने वाले सत्यवादी कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर सारी पृथ्वी को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। ‘उस समय वहाँ भूमण्डल के नरेश नामधारी सभी राजा आयेंगे। तुम्हारे पिता भी बहुत से रत्नों की भेंट लेकर उस समय उपस्थित होंगे। ‘चित्रवाहन की सेवा के निमित्त उन्हीं के साथ राजसूय यज्ञ में तुम भी चली आना। मैं वहीं तुमसे मिलूँगा । इस समय पुत्र का पालन करो और शोक छोड़ दो। ‘वभ्रुवाहन के नाम से मेरा प्राण ही इस भूतल पर विद्यमान है, अतः तुम इस पुत्र का भरण-पोषण करो । यह इस वंश को बढ़ाने वाला पुरूषरत्न है। ‘यह धर्मतः चित्रवाहन का पुत्र है; किंतु शरीर से पूरूवंश को आनन्दित करने वाला है। अतः पाण्डवों के इस प्रिय पुत्र का तुम सदा पालन करो। ‘सती-साध्वी प्रिये ! मेरे वियोग से तुम संतप्त न होना।‘ चित्रांगदा से ऐसा कहकर अर्जुन गोकर्णतीर्थ की ओर चल दिये। वह भगवान् शंकर का आदिस्थान है और दर्शन मात्र से मोक्ष देने वाला है। पापी मनुष्य भी वहाँ जाकर निर्भय पद प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवासपर्व में अर्जुन की तीर्थ यात्रा से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ सोहलवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

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