महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 1-15

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विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्‍याय: आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

द्वारका में अर्जुन और सुभद्रा का विवाह, अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुँचने पर श्रीकृष्ण आदि का दहेज लेकर वहाँ जाना, द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म, संस्कार और शिक्षा

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय सभी वृष्णिवंशियों ने अपने-अपने पराक्रम के अनुसार अर्जुन से बदला लेने की बात बार-बार दुहरायी । तब भगवान् वासुदेव यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन बोले -। ‘निद्राविजयी अर्जुन ने इस कुल का अपमान नहीं किया है। अपितु ऐसा करके उन्होनें इस कुल के प्रति अधिक सम्मान का भाव ही प्रकट किया है, इसमें संशय नहीं है। ‘पाण्डुपुत्र अर्जुन यह जानते हैं कि सात्वतवंश के लोग सदा से ही धन के लोभी नहीं हैं, अतः धन देकर कन्या नहीं ली जा सकती। साथ ही पाण्डुपुत्र अर्जुन को यह भी मालूम है कि स्वयंवर में कन्या के मिल जाने का पूर्ण निश्चय नहीं रहता, अतः वह भी अग्राह्य ही है। ‘भला, कौन ऐसा वीर पुरूष होगा, जो पशु की तरह पराक्रम शून्य होकर कन्यादान की प्रतीक्षा में बैठा रहेगा एवं इस पृथ्वी पर कौन ऐसा अधम पुरूष होगा, जो धन लेकर अपनी संतान को बेचेगा। ‘मेरा विश्वास है कि कुन्तीकुमार ने इन सभी दोषों की ओर दृष्टिपात किया है; इसीलिये उन्होनें क्षत्रिय धर्म के अनुसार बलपूर्वक कन्या का अपहरण किया है। ‘मेरी समझ में यह सम्बन्ध बहुत उचित है । सुभद्रा यशस्विनी है और ये कुन्तीपुत्र अर्जुन भी ऐसी ही यशस्वी है; अतः इन्होंने सुभद्रा का बलपूर्वक हरण किया है।
‘महाराज भरत तथा महायशस्वी शान्तनु के कुल में जिनका जन्म हुआ है, जो कुन्तीभोजकुमारी कुन्ती के पुत्र हैं, ऐसे वीरवर अर्जुन को कौन अपना सम्बन्धी बनाना न चाहेगा ?’ ‘आर्य ! इन्द्रलोक एवं रूद्रलोक सहित सम्पूर्ण लोकों में भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाले विकराल नेत्रों वाले भगवान् रूद्र को छोड़कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो संग्राम में बलपूर्वक पार्थ को परास्त कर सके। ‘इस समय अर्जुन के पास मेरा सुप्रसिद्ध रथ है, मेरे ही अद्भुत घोड़े हैं और स्वयं अर्जुन शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र चलाने वाले योद्धा हैं। ऐसी दशा में अर्जुन की समानता कौन कर सकता है ? आप लोग प्रसन्नता के साथ दौडे़ जाइये और बड़ी सान्त्वना से धनंजय को लौटा लाइये। मेरी तो यही परम सम्मति है। ‘यदि अर्जुन आप लोगों को बलपूर्वक हराकर अपने नगर में चले गये, तब तो आप लोगों का सारा यश तत्काल ही नष्ट हो जायगा और सान्त्वनापूर्वक उन्हें ले आने में अपनी पराजय नहीं है’। जनमेजय ! वासुदेव का यह वचन सुनकर यादवों ने वैसा ही किया। शक्तिशली अर्जुन द्वारका में लौट आये। वहाँ उन्होंने सुभद्रा से विवाह किया और एक साल से कुछ अधिक दिन तक वे वहीं रहे। द्वारका में इच्छानुसार विहार करके वृष्णिवंशियों द्वारा पूजित होकर अर्जुन वहाँ से पुष्कर तीर्थ में चले गये और वनवास का शेष समय वहीं व्यतीत किया। बारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर वे खाण्डवप्रस्थ में आये। उन्होंने धौम्यजी के पास जाकर उनको तथा माता कुन्ती को प्रणाम किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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